विश्व दूध दिवस : तुम्हारा खानपान, ज्ञान विश्व में सर्वश्रेष्ठ था, है, रहेगा

नमस्कार दोस्तो, दो पळवे दूध
आज विश्व दूध दिवस 19 साल का हो ही गया। जी हां विश्व दुग्ध दिवस। आपको तो पता ही होगा कि सदियों से देशां म्हं देश हरियाणा जित दूध दही का खाणा लेकिन संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संघ को 1 जून 2001 ही पता चला कि दूध ताजा पीना चाहिये थैली वाला नहीं यानि धारोष्ण दूध का कोई मुकाबला नहीं। हां हां धार लेणी चाहिए। याद होगा ना कि तू के धार ले सै???
कुछ समय पहले अपने भारत महान के राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल ऐसे ही घूमते फिरते चला गया था। वहां पांच वरिष्ठ वैज्ञानिकों से वार्तालाप करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। घी पर बात चल पड़ी कि वैदिक (देशी) तरीके से बने घी में ही खुशबू क्यों होती है आजकल बनने वाले क्रीम के घी में खुशबू की जगह बदबू क्यों होती है??? ये तो शोध का विषय है। खैर … हम भारतीय कुछ ज्यादा ही पढ़ गये। अंग्रेजी तो हमें अंग्रेजों से भी ज्यादा आने लगी लेकिन अपने ज्ञान पर आज तक भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शोध कार्य नहीं किया।
चलो आज विश्व दुग्ध दिवस पर पोईस्चर व कुरियन बाबा के दूध में जहर मिला कर संरक्षित रखने के ज्ञान को भूल कर अपनी मां व दादी के ज्ञान को याद करते हैं क्योंकि उनके ज्ञान में हानिकारक रसायनों की मिलावट नहीं थी, इसलिए उस दूध व घी में खुशबू थी। आज का थैली वाला दूध और घी छी छी।
मां व दादी क्या करती थी???
सुबह पीतल की बाल्टी में दूध निकाल कर वो उस दूध को पळो कर के मिट्टी की कढावणी में गोस्सों पर हारे में कढणे के लिऐ रख देती थी। कढावणी पर सुरखों वाला कापण ढका रहता था जिससे भाप बाहर निकलती रहती थी। शाम तक मंद आंच पर वो दूध कढ जाता था यानि दूध की अधिकांश वसा मळाई में बदल जाती थी तथा दूध के प्रोटीन भी रूपांतरित हो जाते थे। वह दूध व मळाई फिर शाम को निकले दूध को गर्म कर घर के सदस्यों द्वारा पीने के बाद बचे दूध में मिला कर मिट्टी के विशेष बर्तन बिलोवणी में रख कर जामण लगा कर जमा दिया जाता था।
सुबह पांच बजे के आसपास उस बिलोवणी को गड़गम पर रख कर उस में जमी दही को लकड़ी की बनी रई चाखड़े से नेते से बिलोया जाता था। अधबिलोई दही का विशेष महत्व था, मख्खन का अलग, फड़फड़ी का अलग व शीत का अलग।
धूप निकलते ही सिप्पी से कढावणी व मूंज से बिलोवणी को साफ किया जाता था। खुरचण का अपना अलग स्वाद व महत्व था। बिलोवणी को कुछ समय धूप में भी रखा जाता था।
मख्खन (टिंडी, नूणी, लूणी घी) को मिट्टी की घीलड़ी में रखा जाता था तथा दो या तीन दिन का इकट्ठा कर के गर्म (ता लिया) कर लिया जाता था। चेहड़ू को राख में डाल दिया जाता था और घी को बडे मटके (बारे) में भर कर रख दिया जाता था।
ये था वैदिक (देशी) दुग्ध संरक्षण व घी उत्पादन पद्धति जिस में किसी भी प्रकार का कोई जहरीला रसायन नहीं मिलाया जाता था। आज की विज्ञान मेरी मां दादी की विज्ञान को नहीं समझ पाएगी, क्योंकि आज हम बहुत ही ज्यादा पढ़ लिख गये और धार काढणा या धार लेणा आदिवासियों का काम समझने लगे तथा बीयर व दारु पीना स्टेटस् सिंबल बन गया।
जागो भारतीयों जागो, तुम्हारा खानपान व परम्परागत ज्ञान विश्व में सर्वश्रेष्ठ था है और रहेगा। थैली का दूध छोड़ कर दूधिये को दस रुपये ज्यादा दे दो क्योंकि ताजा दूध ही अच्छा होता है और देशी गाय का दूध और वैदिक (देशी) तरीके से बना उस का घी तो अमृत तुल्य है। अमृत अनमोल होता है ना तो क्यों मोल भाव करना अमृत का।
गोबर से वैदिक प्लास्टर बणाता भारतीयता का अलख जगाता अणपढ़ जाट
डॉ. शिव दर्शन मलिक
वैदिक भवन रोहतक (हरियाणा)
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9812054982
19वां विश्व दुग्ध दिवस
01 – 06 – 2019