आभासी संवाद : आस्तिक और नास्तिक के बीच

जब जब नास्तिकता और आस्तिकता के बीच बहस होगी, जीत हमेशा नास्तिकता की ही होगी क्योंकि नास्तिक व्यक्ति अपनी नास्तिकता को लेकर सबसे बड़ा आस्तिक निकलेगा.
और आस्तिक व्यक्ति हमेशा उसकी नास्तिकता पर भी आस्था रखेगा, क्योंकि बिना आस्था के तो आस्तिक भी आस्तिक कहाँ रह जाएगा. वो स्वीकार करेगा नास्तिक को उसकी पूरी नास्तिकता के साथ…
एक ऐसा ही सुन्दर वार्तालाप हुआ एक आस्तिक और नास्तिक के बीच….
आस्तिक – एक बात कहनी थी पता नहीं आप समझ पाएँगे या नहीं… आपने कभी किसी से प्रेम का अभिनय किया है?
नास्तिक – हा हा हा हा हा
जब अभिनय ही है तो प्रेम का हो या किसी भी भाव का वो तो मेरी सामर्थ्य हुई।
और अगर भाव है प्रेम हो या कोई और तो उसे करने की जरूरत क्या…
अभिनय भी किया है और प्रेम भी……..
लेकिन दोनों को अलग अलग रूपों में महसूसा है।
अपने अभिनय से संतुष्ट हूँ और प्रेम मेरी हर तरह की संतुष्टि का कारण…..
हाँ! मैं मानता हूँ कि मेरी समझदानी थोड़ी छोटी है लेकिन इतनी छोटी भी नहीं है कि एक कतरा दर्शन को अपनी तली में जगह न दे पाये।
आस्तिक – फिर तो नहीं समझे ….. मैं उसी प्रेम की बात कर रही हूँ जो हमें लगता है बिलकुल सच्चा है … जैसे वो न होता तो पता नहीं जीवन का क्या होता…. फिर उसी प्रेम को गौर से देखो…. और अपने अभिनय में पारंगत होकर दिखाओ ….
नास्तिक – जो न होकर भी जीवन का एहसास कराये…..
जो स्वयं को प्रेम मानने से ही इनकार करे क्योंकि प्रेम का ही एक रूप है उसका न होना भी…..
जिसे शायद आप सच्चे झूठे जैसे शब्दों से सम्बोधित कर रही हैं।
अभिनय की क्या आवश्यकता जब जीवन के रंगमंच पर आपकी साँसें खुद ही अपना सम्भावित किरदार निभा रही हों……
आपको तो बस नेपथ्य में खड़े रह कर सही जगह पर निर्देशित करने की जरुरत है।
इस संवाद की सहूलियत के लिए आभार कह कर आपके स्नेह का उपहास नहीं उड़ाऊँगा।
लेकिन अच्छी लग रही है यह बातचीत……
शायद किसी निष्कर्ष तक भी पहुंचे।
आस्तिक – हर चीज़ को अपने हाथों से गढ़ने की ज़िद क्यों? निर्देशन देते हुए प्रतीत हो रहे हैं, हैं नहीं… कठपुतलियों की डोर कोई और थामे हैं… हमें तो बस कठपुतलियों के भेष में खुद को देखते हुए अपने अभिनय को और अधिक निखारना है…
नास्तिक – हाँ……
यह कोई और का फंडा बहुत ही बढ़िया है। स्वयं को समझाने का सबसे भ्रामक लेकिन सटीक तरीका।
मैं इनकार करता हूँ खुद को कठपुतली मानने से….
मेरी डोर किसी और के हाथो में नहीं हो सकती क्योंकि जो मैं हूँ, वो दुनिया में न कभी पैदा हुआ था और न होगा……
एक व्यक्ति के तौर पर मैं हमेशा अपने नाम काम और शकल से ही पहचाना जाऊंगा।
खाना खाने के लिए निवाला मुंह तक ले जाना कर्म…….
और वही निवाला किसी लापरवाही से गिर जाय तो किसी और के हाथो की डोर या फूटी किस्मत वाला धर्म…..
यह द्वन्द मुझे कभी भी सहज नहीं लगा
आस्तिक – वैसे जो नहीं पा सके वो भी आप ही के हाथों से छोड़ा हुआ होगा ना? इसलिए उसके ना मिलने का अफ़सोस भी नहीं होगा?
“जो मैं हूँ, वो दुनिया में न कभी पैदा हुआ था और न होगा……” हर जन्म में यही चीख चीख कर कहते रहे… फिर लौट लौट आए.. हर बार नाम बदलकर लेकिन तेवर नहीं बदले….
“एक व्यक्ति के तौर पर मैं हमेशा अपने नाम काम और शकल से ही पहचाना जाऊंगा।” तो क्या एक व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है आप?
नास्तिक – अगले जनम या पिछले जनम से क्या वास्ता मेरा….
आखिर उसका कोई असर न तो मुझ पर पड़ा न मेरे अगले जनम पर पड़ना है……
मिथकीय भविष्य पर विश्वास नहीं मुझे..
निश्चित तौर पर एक व्यक्ति से कहीं ज्यादा हूँ मैं, लेकिन मेरा कुछ भी होना मेरे व्यक्तिगत सीमाओं से परे नहीं है।
रावण से लेकर ओशो तक किसी ने भी दोबारा जन्म नहीं लिया ।
हाँ जब उन्होंने जन्म लिया तो उनकी भांति दूसरा कोई नहीं था…
यह विधि का विधान नहीं बल्कि उन व्यक्तियों के व्यक्तित्व की सार्थकता थी, जिसे अपनी साधना या ज़िद से व्यापक आयाम दिया था उन्होंने..
एक माइक्रोग्राम के न्यूक्लियर से लेकर ईश्वर की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने वाला मस्तिष्क ईश्वर नहीं बना सकता और बना भी दे तो उसका विकास मनचाहे रूप में नहीं कर सकता..
यह तो पूरी तरह परिस्थितियों और वातावरण पर निर्भर करता है…
क्या कारण है कि शैफाली अराजक नहीं है क्योंकि शैफाली अपनी सौम्यता से पूरी तरह तुष्ट है
हाँ किसी हद तक अस्थिर हूँ……
शायद इसलिए कि मेरी बेचैनी मुझे स्थिर रहने नहीं देती।
उम्मीद करता हूँ कि कभी वह दिन आएगा जब मेरे अनजानी तलाश पूरी होगी और मैं भी आँखें मूँदे दोनों आँखों के बीच की ज्योति को देखने का भ्रम पाल पाऊंगा….
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आस्तिक व्यक्ति हारने का भी आनंद उठाएगा क्योंकि आस्तिकता तर्कातीत होती है… नास्तिक के तर्क उसके लिए च्यूइंग गम के समान है, शुरू में खूब मिठास देगा लेकिन ज़्यादा देर तक चबाते रहे तो स्वाद तो आने से रहा, मुंह दुखने लगेगा सो अलग..
आस्तिक की बातें उसके अपने लिए चॉकलेट के समान हैं जब तक चबाते रहेंगे तब तक मुंह में मिठास घुली रहेगी और चॉकलेट ख़त्म होने के बाद भी मीठास बनी रहेगी ….
लेकिन जब हम अस्तित्व की बात करते हैं तो उसमें केवल मीठी बातें ही नहीं है, नास्तिक की दोनों आँखों के बीच की ज्योति का भी समावेश है… जो उसके लिए जीवन भर भ्रम रह सकता है… लेकिन फिर ईश्वर भी तो केवल कल्पना ही है जब तक ये अनुभव न हो कि अहम् ब्रह्मास्मि…
– माँ जीवन शैफाली