गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है…

क्या आपने कभी ऐसा सफर किया है जिसमें मंज़िल से बहुत अधिक मतलब नहीं होता? जहाँ सफर करने का उद्देश्य सिर्फ सफर ही हो? अगर किया हो या कभी करेंगे तो आप देखेंगे कि जब किसी मंज़िल पर जाना हो तो हम तीव्रतम साधन चुनते हैं, जैसे हवाई जहाज़, ट्रेन, कार/बस, टेम्पो. पर जब कोई मंज़िल न हो तो यह क्रम बदल जाता है, जैसे रिक्शा, टेम्पो, कार/बस, ट्रेन.
सोचिये कि आपको घूमने का मन हो और आप चल दिये एक पिट्ठू बैग लटकाए. जिसमें हो एक तौलिया, ब्रश, कुछ कपड़े, मोबाइल का चार्जर, दो एक किताबें. किसी रेलवे स्टेशन पर गए और किसी एक तरफ का टिकट लेकर कोई खाली ट्रेन देखकर बैठ गए. लम्बा जाना हो तो रिजर्वेशन करा लिया.
ट्रेन के साथ-साथ खुद को भी चलता हुआ महसूस करना, खिड़की से बाहर दूर के दृश्यों को पीछे भागते और उन्हें ही अर्धगोलाकार पथ पर अपनी तरफ वापस आते देखना, ट्रेन के समानांतर खम्बों पर लगी तारों को एक लयबद्ध तरीके से ऊपर फिर नीचे और फिर ऊपर और फिर नीचे देखना.
बीच-बीच में किसी नदी का आ जाना, किनारों पर किसी को कपड़े धोते, बच्चों को उसमें छलांगे लगाते देखना, और अभी सब देखा ही न हो कि ट्रेन का पुल से धड़धड़ाते हुए गुज़र जाना. शाम के समय के सुहावने उजाले में कमज़ोर गायों और तन्दरुस्त भैसों को हांक कर वापस ले जाते चरवाहे. निश्चित रूप से ये चरवाहे या तो कमउम्र युवक होते हैं या अधिक उम्र के पगड़ी और धोती पहने बुजुर्ग. छोटे स्टेशनों पर बिना रुके गाड़ी का निकल जाना और वहां प्रतीक्षारत जनता का उस गुजरती गाड़ी को जाते हुए देखना, जैसे प्रेमिका ने ऐन मौके पर धोखा दे दिया हो.
ट्रेन के अंदर विभिन्न प्रान्तों के, अपने साथ भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति लिए लोग. यहाँ संस्कृति से मेरा मतलब उनके भोजन से है. तमिल अपने साथ डब्बे लेकर चलेंगे जिसमें एक में भाप उड़ाती सुंदर और गोल-मटोल इडली होगी और दूसरे में चटनी.
बिहारी एक पन्नी में पूड़ी या तेल में तली हुई लिट्टी लेकर चलेगा और उसके आम के अचार की खट्टी खुशबू दिग-दिगन्तर में फैल जाएगी. उड़िया भाई लाई फाँकते हुए चलेंगे.
मेरा तो मन करता है कि उस तमिल से पूछूं कि भाई एक इडली मिलेगी क्या. जब वो अपना डब्बा बढ़ाये तो मैं उनमें से एक उठा लूँ. वो औपचारिकता में ही फिर से पूछे और मैं फिर से एक इडली उठा लूँ.
बिहारी तो अपना भाई है, उससे एक अचार तो मिल ही जायेगा. गुठली को चूसने का अपना ही आनन्द है. काश कि वो उड़िया बन्धु उस भोजन में मुझे भी अपना हिस्सेदार बना लेता. कभी-कभी घूंट लगाते लोग भी दिख जाएंगे और आप उन्हें मित्रवत घूर दो तो इशारों में ही पूछेंगे कि क्या एक छोटा सा आपके लिए भी बनाया जाय.
सबसे मस्त सहयात्री बंगाली होते हैं. खूब खाते-पीते, खिलाते-पिलाते पानी की बड़ी से बड़ी बोतलें लेकर चलते और बांग्ला में हमेशा ही किसी बहस में मशगूल बंगाली. ये लोग सफर को सही मायनों में एन्जॉय करते हैं.
घर का खाना तो रोज ही घर में मिलता है इसलिए ये ट्रेन में मिल सकने वाली सभी चीज खाते-पीते चलेंगे और किसी बड़े स्टेशन के आने से पहले ही जाने कैसे फोन पर या अटेंडेंट के माध्यम से पूरे खाने का ऑर्डर कर देंगे और खाना आ जाने पर अक्सर ही आपसे पूछेंगे कि नॉनवेज खाते हैं क्या आप, लीजिये न थोड़ा सा. एक बहुत खास बात देखी है कि किसी भी बंगाली महिला या लड़की को आपसे बात करने में हिचक नहीं होती.
हर बार जरूरी नहीं कि आपको इतने सहृदय सहयात्री मिलें पर खाने की क्या टेंशन जब बड़े स्टेशनों पर, भले ही रात के तीन बजे हों, आपको कोई न कोई ठेला दिख जाएगा जहाँ गरमागरम पूड़ियाँ तेल से बस निकाली ही जा रही हों.
पब्लिक ट्रेन के रुकते ही पानी की बोतलों को पूरा भरने के बाद उस ठेले के चारों ओर अपने हाथ में पैसे पकड़े हुए एक नजर पूड़ियों पर और दूसरी नजर ट्रेन पर लगाये दिख जाएगी. मस्त तेल में छनी पूड़ियाँ लीजिये और आलू या पके मटर की सब्जी से उदरस्थ कर लीजिए.
चावल के शौकीनों के लिए चावल-राजमा भी है जो बहुत ही कम दामों मिल जाता है. भोजन से पहले वाले एपेटाइजर या भोजन के बाद वाले स्वीट डिश के तौर पर स्टेशनों पर या ट्रेनों में बिकती वो वाहियात डिप वाली चाय तो है ही. उत्तर भारत के पूर्वांचल में यदि आप सफर कर रहे हों तो आप खुशकिस्मत हैं जो मिट्टी के कुल्हड़ों में सौंधी खुशबू और इलायची के टेस्ट वाली चाय नसीब हो जाती है.
इन छुट्टियों में सोचता हूँ कि ऐसे ही एक पिट्ठू बैग लूँ और निकल लूँ कहीं, कुछ दिनों के लिए. भोपाल, इंदौर, बंगाल, गुजरात, राजस्थान, चेन्नई, केरल, कहीं भी और वहाँ रहने वाले किसी फेसबुक फ्रेंड को एकाध दिन खूब परेशान करूँ.
– अजीत प्रताप सिंह