सामाजिक व्यवस्था और विवाहेतर सम्बन्ध, ब्रह्माण्डीय व्यवस्था और जीवनोत्तर यात्रा

विवाह को लेकर हमारे यहाँ जहां सात जन्मों की कसमें खाई जाती हैं, उसके पीछे क्या भाव होते हैं? आज के आधुनिक समाज में क्या रिश्ते वास्तव में इतने टिकाऊ और विश्वासपूर्ण रह गए हैं?
यदि वास्तव में ऐसा है तो विवाहेतर सबंधों की अचानक से बाढ़ क्यों आ गयी है? या फिर सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म्स ने उसे अधिक स्वतंत्रता या कहें, खुलापन दिया है?
क्या रिश्ते इतने अधिक बंधन में होते हैं कि ज़रा सी स्वतंत्रता मिलते ही सात जन्म तो क्या आजकल सात वर्ष भी नहीं टिक पाते?
फैमिली काउन्सलिंग, मनोवैज्ञानिक चिकित्सा केंद्र आदि की आवश्यकता समाज को क्यों पड़ने लगी? क्या पहले के ज़माने में विवाह बंधन नहीं होता था? या तब समर्पण अधिक होता था?
ऐसे कई सवाल बारम्बार उठते रहते हैं. इसके कई पहलू हैं. संयुक्त परिवारों का टूटना, सामूहिक सामंजस्य से अधिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्त्व का बढ़ जाना, समय के साथ सामाजिक ढाँचे में बदलाव आना, और भी कई कारण हैं.
यहाँ इन कारणों पर मैं नहीं लिखूँगी ना ही विवाहेतर संबंधों पर. मेरा दुनिया को देखने का नज़रिया थोड़ा अधिक विस्तृत है. मेरे अनुसार सामाजिक व्यवस्था भी उतनी ही आवश्यक जितनी ब्रह्माण्डीय.
लेकिन फिर भी ‘सिर्फ़ रिश्ते’ विवाहेतर नहीं होते, जो कुछ भी सामाजिक व्यवस्था से इतर है वो समाज द्वारा स्वीकार्य नहीं होता. लेकिन जो भी रिश्ता है वो आत्मा से इतर नहीं होना चाहिए. एक रिश्ता जो आपकी चेतना को विराट करता हो, वो सामाजिक रिश्ते को कभी संकुचित नहीं करेगा. एक ऐसी व्यवस्था जो चेतना को अनुशासित करती है वो असामाजिक भी नहीं हो सकेगी.
मेरा मानना है कि सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी हमें कुछ लोगों की आवश्यकता है, यहाँ सब लोग ब्रह्माण्डीय व्यवस्था नहीं जानते. इसलिए जब समाज या रिश्ते टूटने की कगार पर आते हैं तो फैमिली काउन्सलिंग, मनोवैज्ञानिक चिकित्सा केंद्र या बुज़ुर्गों और परिवार, समाज की सलाह आवश्यक है. ये एक तरीका होता है लोगों को आपस में जोड़े रखने का.
जिनकी दृष्टि जहाँ तक देख पाती है उतना रास्ता सुगम बनाने का उनका प्रयास होता है. अच्छा भी है, इस तरह से सकारात्मक प्रयास होते रहना चाहिए. यहाँ भावनाओं का दमन नहीं संतुलन सिखाया जाता है… जो ठीक भी है.
लेकिन आपकी दृष्टि थोड़ा दूर तक देख पाती है या ये कहें थोड़ा और ऊपर से देख पाती हैं, तो सामाजिक व्यवस्था बहुत गौण हो जाती है. तब हम शरीर, उसके नाम और समाज के रिश्तों के अनुसार नहीं चलते, तब हम चेतना के रिश्ते, पूर्वजन्म के संबंधों और हरेक व्यक्ति की व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा को भी देख पाते हैं.
जैसे आप गूगल अर्थ या गूगल मैप देखते हैं, जितना आप दूरी से देखेंगे उतना अधिक क्षेत्रफल देख सकेंगे, जितना ज़ूम करते जाएंगे, एक विशेष स्थान के नज़दीक पहुँचते जाएंगे. तो जीवन को देखना भी कुछ ऐसा ही है. जितना करीब से देखेंगे उतना कम क्षेत्र दृष्टिगोचर होगा. चीज़ों को देखने के लिए थोड़ा दूर खड़े होकर देखना आवश्यक है.
जिनको थोड़ा और दूर से देखने का सामर्थ्य मिल जाता है, उनके लिए फिर चेतना के स्तर पर बन रहे रिश्ते भी गौण हो जाते है… फिर दिखने वाला हर दृश्य फिल्म का कोई सीन लगने लगता है, जहाँ आपको पूर्ण अभिनय के साथ अपना किरदार निभाकर आगे के सीन के लिए तैयार हो जाना होता है..
फिर भावनाएं भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाती, इसलिए उसके संतुलन, दमन या शमन की आवश्यकता नहीं रह जाती. हाँ आपकी ऊर्जा के उर्ध्वगमन के लिए इन भावनाओं का उपयोग किया जाता है. जिसे आप खुद भी देख पा रहे होते हैं.
और जब फिल्म ख़त्म होती है तब हमें यह समझ आ जाता है कि हम जो कुछ भी जीकर आए हैं.. वो तो मात्र दोहराव था… न जाने कितनी बार कितने ही जन्मों तक हम एक ही तरह की फिल्म में अभिनय कर रहे हैं…
फिर हम सिर्फ एक दर्शक हो जाते हैं, अपनी ही फिल्म के दर्शक… इसे ही कहते हैं साक्षी भाव…
फिर थोड़ी और दृष्टि तीव्र हो जाती है तो साक्षी भी नहीं रह जाते, हम स्वयं साक्ष्य हो जाते हैं… और आने वाली पीढ़ी इन्हीं साक्ष्य की सहायता से अपनी राह खोजती है.
तो प्रश्न तो हर युग में उठते रहेंगे, आने वाले समय में सामाजिक ढांचा क्या होगा हम कल्पना नहीं कर सकते, परन्तु ब्रह्माण्डीय ढांचा इन सबसे अप्रभावित रहता है. वो इतना वृहद है कि हर युग की भौतिकता को वो अपने अन्दर ढाल लेता है. उसके स्वरूप का पूर्ण दोहन करके उसकी भी उपयोगिता का महत्व बनाए रखता है.
क्योंकि अस्तित्व हमारी इन सामजिक व्यवस्थाओं पर निर्भर नहीं है. उसका काम तो निरंतर चल रहा है और चलता रहेगा. आवश्यकता है हमें और अधिक सजग होने की, स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को समझने की.
व्यक्तिगत रूप से हर कोई यहाँ स्वतंत्र ही है, बस उसे इसका यह भान नहीं होता. जिस दिन ज़रा सा भी होश आ जाए कि हम सारे रिश्तों में बंधकर भी पूर्ण स्वतन्त्र हैं, वहां रिश्ते बंधन नहीं रह जाते, ब्रह्माण्डीय व्यवस्था का एक छोटा सा, बल्कि बहुत ही छोटा सा हिस्सा रह जाता है यह सामाजिक व्यवस्था.
तब हम सामाजिक व्यवस्था को भी ब्रह्माण्डीय व्यवस्था मानकर उसके स्वर्णिम नियम के अनुसार जीने लगते हैं. क्योंकि नियम और अनुशासन तो हर जगह है. पूर्ण स्वतंत्रता के साथ भी मुक्त तो कुछ भी नहीं.
जो अति को छूकर आया है वही वास्तविक रूप से मध्यमवर्ति हो सकता है – माँ जीवन शैफाली