बहुरुपिया और प्रतीक्षा का फल

एक ही कथानक पर दो कहानियां! दोनों में समानता और इस हद तक समानता कि शायद एक दूसरे का एक्सटेंशन कही जाए.
हंस पत्रिका के इस अंक में कहानीकार प्रियदर्शन की कहानी ‘प्रतीक्षा का फल’ और जनवरी 2018 से समालोचन ब्लॉग पर उपस्थित कहानीकार राकेश बिहारी की कहानी ‘बहुरूपिया’, दोनों ही कथानक के स्तर पर बहुत ही समानताएं लिए हुए हैं..
दोनों में ही एक लम्पट कवि है, दोनों की कहानियों में एक लड़की है जो छद्म नाम से उस कवि की भावनाओं का रस ले रही है.
राकेश बिहारी की कहानी में स्पष्ट है कि वह बदला है, मगर प्रियदर्शन की कहानी में यह स्पष्ट नहीं है कि वह शरारत किसकी है. दोनों ही कहानियों का अंत एक ही है, कि दोनों ही बहुत बुरी तरह से छल का शिकार होते हैं, दोनों ही उस जाल में खुद फंसते हैं, जो वे लड़कियों के लिए डालते थे.
मगर फिर भी दोनों ही कहानियों में बहुत भिन्नताएं हैं, जहाँ राकेश बिहारी की कहानी में यह बात बहुत ही भ्रामक सी है कि वे कहानी का आरम्भ तो नीलिमा से करते हैं, वे लिखते हैं कि “वर्तिका की आँखों से गिरती आंसू की बूंदें नीलिमा की बाँहों पर तेजाब-सी पड़ रही थीं.” यह कहानी की एकदम प्रथम पंक्तियाँ हैं, पूरी कहानी में हम नीलिमा के माध्यम से आगे बढ़ते हैं, पाठक पढ़ता है कि किस प्रकार नीलिमा अपनी कविताओं के माध्यम से ही कवि की लम्पटता को उजागर करती है, परन्तु जब हम अंत पर पहुँचते हैं, तो अचानक से नीलिमा के खोल से नीलेश निकलता है.
यहाँ पर पाठक थोड़ा भौचक्का सा रहता है कि नीलेश कहाँ से आ गया? जब वर्तिका की सहेली नीलिमा थी तो नीलेश कैसे? एक स्थान पर एक बार ऐसा लगता कि शायद नीलिमा के भेष में कोई और हो क्योंकि नीलिमा उस कवि को अपनी आवाज़ न सुनाकर अपनी साँसों के आवाज सुनाती है. मगर फिर भी पाठक को यह अंदाजा नहीं है कि वह नीलेश निकलेगा!
हालांकि साहित्य जगत की कलुषता को प्रकट करने में यह कहानी सफल है, मगर फिर भी नीलिमा का नीलेश में बदलना स्वाभाविक नहीं प्रतीत होता. कहानी में तथ्य अचानक से प्रकट तो हो सकते हैं, मगर रहस्य इस प्रकार प्रकट होना कहीं न कहीं कुछ असहजता उपस्थित करता है.
जबकि प्रियदर्शन की कहानी अधिक गढ़ी हुई लगती है, हास्य बोध से भरी एक कहानी. उस कहानी को पढ़ते हुए पाठक उस कवि पर हंसने लगता है, उसे बोध है कि उस कवि के साथ क्या होने जा रहा है, मगर अंत में आकर वह भी अनुमान ही लगा पाता है कि आखिर वह कौन होगा!
दोनों कहानियों में उद्देश्य फर्क है, राकेश बिहारी की कहानी में बदला लेना उद्देश्य है तो प्रियदर्शन की कहानी शायद कवि को सबक सिखाने तक ही सीमित है. इसीलिए प्रवृत्ति में राकेश बिहारी की कहानी हिंसक सी प्रतीत होती है तो प्रियदर्शन की कहानी केवल सबक सिखाने की प्रवृत्ति के चलते एक सहज प्रवाहमयी कहानी है.
पाठक कहानी में उस कवि पर हँसता तो है, परन्तु उसके मन में काव्य जगत के लिए कोई वितृष्णा उत्पन्न नहीं होती. काव्य जगत की पवित्रता को बचाकर ले जाती है, प्रियदर्शन की कहानी प्रतीक्षा का फल.
एक और तथ्य कि जहां राकेश बिहारी की कहानी में यह बार बार स्पष्ट होता है कि कहीं यह किसी को आधार बनाकर तो नहीं लिखी गयी, वहीं प्रियदर्शन की कहानी एक वृहद से परिदृश्य को लेकर चलती है. कि एक कवि ऐसा हो सकता है.
दोहों ही रचनाओं में साज़िश, दोनों ही बेहद शातिराना तरीके से शातिर शिकारी को जाल में फांसते हुए, मगर एक में नायिका के रूप में नायक प्रकट, और दूसरी में पाठकों के लिए अंदाजा लगाने के लिए खुला आकाश छोड़ देना.
प्रतीक्षा का फल एक बहुत ही सुगठित कहानी, एक एक घटनाक्रम पाठक के लिए ज्ञात होकर भी नया है, जहां राकेश बिहारी की कहानी में कवि के लिए एक लिजलिजापन दिल में पैदा होता है, वहीं एक कवि के जीवन में नवागंतुक प्रेम किस तरह आनन्द और रस उत्पन्न करता है, प्रियदर्शन की कहानी में बहुत ही रोचक तरीके से दिखाया है, और एक ऐसे रिश्ते में कवि बंधता जाता है जो शाश्वत है, बिना शर्त के है! पाठक हँसता है, उसकी इस बेचारगी पर. और वह रस लेकर और आगे बढ़ता है.
तो दोस्तों, पाठकों के लिए यह बहुत ही मजेदार होता है कि एक ही कथानक पर दो कहानियां आएं, दोनों ही प्रतिष्ठित रचनाकारों की, तो पाठकों के लिए यह दोहरा आनंद है, मुझे तो एक पाठक के रूप में इन दोनों ही कहानियों में बहुत आनंद आया! आपको भी आएगा.
(एक पाठक के रूप में एक ही विचार और कथानक पर आधारित दो कहानियों का यह थोड़ा सा तुलनात्मक अध्ययन है)
– सोनाली मिश्र