इतिहास के पन्नों से : उमर ख़य्याम, एक आशिक़ की कहानी ऐसी भी!

ये ग्यारहवीं सदी की बात है। उनदिनों इस्लाम पर “अब्बासी” वंश की ख़लीफ़ाई थी।
एक रोज़, ख़लीफ़ा के दरबार की चर्चाओं में सामने आया, हुज़ूर, एक नामुराद ने अपनी आशिक़ी में ऐसी रुबाई लिख दी है, जिसमें उसकी महबूबा के गाल के तिल पर आपका समरकंद-ओ-बुख़ार भी कुर्बान कर दिया गया है!
ख़लीफ़ा ने विषैले स्वर में पूछा, उस बेगैरत का नाम क्या है?
हुज़ूर, उसका नाम “उमर” है।
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ये वही “उमर” हैं, जिन्होंने ख़लीफ़ा से कहकर अपने लिए वेधशाला बनवाई।
वही “उमर ख़य्याम” इस्लामिक ज्योतिष और गणित को नए स्तरों पर ले गये।
उनके द्वारा बनाए गये “पञ्चाङ्ग” से ख़लीफ़ा ने जलाल संवत शुरू किया जो इनदिनों ईरान का “सेल्ज़ुक संवत” है।
ग्यारहवीं सदी से कुछ ही पहले भारतीयों द्वारा हाइपरबोला और वृत्त जैसी ज्यामितीय रचनाओं के हल तथा बीजगणित का व्यापक द्विघात समीकरण का विचार दिया जा चुका था।
फ़ारस में ये सब विचार “ख़य्याम” द्वारा ही प्रचारित प्रसारित किए गए। उनके गणितीय कार्य दर्शाते हैं कि भारतीय मनीषियों से “ख़य्याम” के ताल्लुकात थे।
हालाँकि उनका “शायरी” का शौक़ कभी नहीं छूटा!
उन्होंने चार-चार पंक्तियों की “रूबाईयाँ” लिखीं, जिन्हें आज “मुक्तक” शैली की रचना कहा जाता है।
उनकी रचनाओं को विश्व स्तर पर “एडवर्ड फ़िज्जेराल्ड” और हिन्दी के स्तर पर “हरिवंशराय बच्चन” ने अनूदित किया है।
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ख़लीफ़ा ने फिर पूछा, वो शाइर किस कबीले से है?
हुज़ूर, वो ख़य्याम कबीले का लड़का है।
अच्छा! ख़य्याम कबीले का लड़का? बुज़ुर्गों की जिंदगी हमारे ख़ेमे लगाने में बीती और लड़का रुबाइयाँ लिख रहा है। ख़लीफ़ा तिलमिला गया!
उसके तख़्त और उसकी सम्पूर्ण सल्तनत, समरकंद-ओ-बुख़ारा की इतनी तौहीन कि उसे एक तुच्छ लड़की के गाल के तिल पर वार दिया जाए!
सिपाहियो! उसे कल अलसुबह दरबार में पेश किया जाए। जिन्दा या मुर्दा, जिसप्रकार वो आना चाहे। ये आपके ख़लीफ़ा का हुक्म है।
इस तरह उस दिन का दरबार खारिज़ हो गया!
दूजी सुबह “उमर ख़य्याम” दरबार में पेश किए गए। फटे पुराने कपडे, न पाँव में जूते, न सिर पर टोपी। और आभूषण का तो दूर दूर तक नामोनिशां नहीं।
समूचे राज्य को लगता था कि उन्हें मृत्युदंड दिया जाएगा।
ख़लीफ़ा ने कड़क आवाज़ में पूछा :
“हाँ जनाब! आप ही वो शायर हैं, ज़िसने अपनी मामूली सी महबूबा के गाल के तिल पर मेरा समरकंद-ओ-बुखारा क़ुर्बान कर दिया?”
ख़य्याम ने ऐसा ऐतिहासिक उत्तर दिया जिसका समर्थन उनकी वेशभूषा कर रही थी। वो उत्तर बड़ा रोचक है, हाज़िर जवाबी का जीता जागता निशान!
फटे पुराने कपड़ों में खड़े जनाब “ख़य्याम” बोले, जी हुज़ूर, हूँ तो मैं ही वो शाइर। और इसी फ़िज़ूलखर्ची की वज़ह से मेरी ये हालत है!
बस इतने ही से ख़लीफ़ा ने उनकी काबिलियत को जान लिया और फिर उन्हें सल्तनत की मिल्कियित मान का विकसित किया।
कभी कभी ऐसा भी होता है इश्क़, कभी कभी यूं भी होती है आशिक़ी!
अस्तु।
– योगी अनुराग