हे री सखी मंगल गावो री, धरती अम्बर सजावो री, आज उतरेगी पी की सवारी

व्यवस्था चाहे आध्यात्मिक हो या सामाजिक… जब जब व्यवस्था और प्रेम में से किसी एक को चुनने का मौका आया मैंने सारी व्यवस्थाओं को ताक पर रखकर प्रेम को चुना….
ऐसा भी नहीं है कि मैंने व्यवस्था को चुनने का प्रयास नहीं किया, किया लेकिन उसमें हमेशा एक भय व्याप्त रहा… भय किसी वस्तु का नहीं, भय सुरक्षित घेरों का, लगा इन घेरों में मेरा दम घुट जाएगा, इस व्यवस्था में मेरा मैं कहीं खो जाएगा…
मैं एक असामाजिक प्राणी हूँ, आध्यात्मिक कितनी हूँ ये तय करने का काम मैंने अपने गुरुओं पर छोड़ रखा है, उसकी ज़िम्मेदारी मेरी नहीं, बस मुझे तो उनके सारे प्रयोगों में से गुज़रते हुए खुद को बचाए रखना होता है… और उनके अनुसार ऊपर की सीढ़ी पर कदम भी रखना होता है…
वो कहते हैं जीवन माया है, माया में मत उलझना, प्रेम माया है प्रेम में मत उलझना, वो कहते हैं जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है वो सब माया है, माया में मत उलझना… और मैं देखती हूँ… वो जो कहते हैं उन सबको एक एक करके मेरे सामने माया सिद्ध करके बताते हैं…
मैं अपनी आँखों के सामने हर माया को गुज़रते देखती हूँ… हर घटना को पानी में पड़ी परछाई की तरह हिलता देखती हूँ… मेरी पूरी दुनिया वो लोग एक फूंक भर से हवा में विलुप्त कर देते हैं…
और मैं हर बार खुद को बचा ले आती हूँ… लाख तुम्हारी दुनिया माया सही, लाख ये जीवन माया सही लेकिन मेरा प्रेम माया नहीं, मेरा समर्पण माया नहीं, परमात्मा मायावी हो सकता है मेरी भक्ति माया नहीं…
मैं हर अग्नि परीक्षा से गुज़रकर अपनी इस बात पर कायम रहती हूँ… कि मैं इश्क़ हूँ दुनिया मुझसे चलती है… तुम मुझसे पूरी दुनिया छीन सकते हो… मेरा इश्क़ मुझसे कोई नहीं छीन सकता….
क्योंकि ये इश्क़ दुनियावी नहीं कायनाती है… जिसके लिए एमी माँ कहती हैं – “आशिक और दरवेश मन की एक ही अवस्था का नाम है”….
और एक गीत दिल की गहराइयों में गूंजता है –
बस इतनी इजाज़त दे, क़दमों पे ज़बीं रख दूं, फिर सर न उठे मेरा, ये जां भी वहीं रख दूं…
ऐसे कई गीत इसी भाव भूमि पर बने हैं, जब आप यह तय नहीं कर पाते कि गीत महबूब के लिए गाया गया है कि ख़ुदा के लिए…
ये ऐसा भी नहीं कि मज़ार पर कव्वाली नुमा तरीके से ही गाये गए हो…
बैजू बावरा का ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले….’ में जब आशिक़ परमात्मा से ही यह कहने की मजाल करता है कि भगवान भला हो तेरा…
हम लोगों से कहते हैं… भगवान् तेरा भला करे, लेकिन यहाँ भगवान से यही कहने की ज़ुर्रत सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम और विरह में डूबा इंसान ही कह सकता है कि –
जीवन अपना वापस ले ले
जीवन देने वाले, ओ दुनिया के रखवाले …
चांद को ढूँढे पागल सूरज, शाम को ढूँढे सवेरा
मैं भी ढूँढूँ उस प्रीतम को, हो ना सका जो मेरा
भगवान भला हो तेरा….
यही वो भाव भूमि है कि जब कैलाश खैर गाते हैं… “तेरी दीवानी”… तो बताइये किसके मन में यह हूक जागी होगी कि काश यह गीत किसी स्त्री की आवाज़ में होता… ना… यही वह अवस्था है जब अर्धनारीश्वर की धारणा साक्षात प्रकट होती है और प्रेम सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम रह जाता है … कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक पुरुष गा रहा है .. तेरी दीवानी…
खूब लगा लो पहरे… रस्ते रब खोले…
और इसी भाव में डूबकर जब उस्मान मीर आलाप लेते हैं…. हे री सखी मंगल गावो री… धरती अम्बर सजावो री… तो मैं भी उनके संग उस अनहद नाद में डूब जाती हूँ…
यह वही भाव है जब दलेर मेहंदी “तू मेरे रूबरू है” में गाते हैं – फिर सर न उठे मेरा ये जां भी वहीं रख दूं..
और उस्मान मीर मुझ जैसी विरहिणी के लिए गाते हैं –
साजन आयो रे सखी
मैं तोडूं मोतीयन रो हार
लोग जाणे मैं मोती चुनूं
मैं तो झुक झुक करूं जुहार…
प्रेम में झुके इंसान से सुन्दर इस ब्रह्माण्ड में कोई सुन्दर नहीं, प्रेम में झुके इंसान से बड़ी भक्ति नहीं, प्रेम में झुके इंसान से अधिक आध्यात्मिक कोई व्यक्ति नहीं…
और मैं उस्मान मीर के गीत के आगे बहती अश्रु धारा के साथ झुक जाती हूँ…
हे री सखी मंगल गावो री, धरती अम्बर सजावो री…
कि आज उतरेगी पी की सवारी….
और यकीन मानिए प्रेमी की सवारी उतरती है… मैं प्रेम को खुद में उतरता अनुभव करती हूँ और उस्मान मीर के इन बोलों के साथ एकाकार होता पाती हूँ कि –
ए री कोई काजल लावो री
मोहे काला टीका लगावो री
उनकी छब से दिखूं मैं तो प्यारी
लछमीजी वारो
नज़र उतारो
आज मोरे पिया घर आवेंगे…
चौक पुराओ, माटी रंगाओ, आज मोरे पिया घर आवेंगे…
हे री सखी री… पिया घर आवेंगे
मुझे संगीत की अधिक समझ नहीं लेकिन जब वे मंद सप्तक से तार सप्तक की ओर बढ़ते हुए आलाप लेते हैं तो लगता है… विरह में डूबा इंसान सच में ऐसे ही आंसुओं के भंवर में उलझा रहता है… और जब विरह सहन नहीं होता तो एक आर्तनाद उस भंवर से उठता है…
जो कहता है…
रंगों से रंग मिले, नये नये ढंग खिले
खुशी आज द्वार मेरे डाले है डेरा
पिहू पिहू पपीहा रटे, कुहू कुहू कोयल जपे
आंगन आंगन है परियों ने घेरा
अनहद नाद बजाओ री सब मिल, आज मोरे पिया घर आवेंगे…
हे री… सखी री… पिया घर आवेंगे…
तबले की थाप के साथ फिर जो वो गाते हैं… लगता है सच में अनहद नाद यही है… जब हृदय उस संगीत के साथ इतना एकाकार हो जाता है कि प्रेम और प्रेमी फिर अलग नहीं रह जाता…
जब आर्तनाद होता है… एक विरहिणी का आर्तनाद…. फिर उसे प्रेमी की आवश्यकता नहीं रह जाती….
प्रेम में डूबी एक नायिका जो सिर्फ़ कृष्ण की मूर्ति को अपना सर्वस्व मान लेती है… उसके लिए उसमें प्रेमी का होना भी आवश्यक नहीं, एक भंगुर मूर्ति सिर्फ़ एक माया ही तो है… लेकिन फिर भी वह साक्षात मीरा हो जाती है… कृष्ण उसके हृदय में प्रकट होते हैं…
यदि आप इस भावभूमि पर उतरकर इस गीत को सुन सकते हैं तब मेरी तरह यह कहने की मजाल कर सकते हैं कि … हाँ मैं इश्क़ हूँ और दुनिया मुझसे चलती है… चाहे वह दुनिया कितनी ही मायावी क्यों न हो… मैं उस महामाया से अधिक मायावी हूँ…
– माँ जीवन शैफाली
पुनश्च : लेख पूरा हो जाने के बाद ध्यान बाबा के साथ बैठकर यह गाना पूरा सुना… उनके साथ किसी गीत को देखना-सुनना एक अलग ही दुनिया में ले जाता है … जैसे ही उस्मान मीर कहते हैं “अनहद नाद” तो ध्यान बाबा कहते हैं इसके पूरा होने पर मुझसे पूछियेगा ये अनहद नाद क्या है… जैसा कि हमेशा होता है मेरा लेख उनके वक्तव्य के बिना अधूरा होता है… गीत पूरा होने पर जब अनहद नाद के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया ये अनहद शब्द ही गलत है, वास्तविक शब्द है अनाहत… वो ताली बजाते हुए बताते हैं किसी भी नाद को उत्पन्न होने के लिए उसको किसी दूसरे की आवश्यकता पड़ती है… दूसरे द्वारा आहत होने की आवश्यकता पड़ती है… एक ऐसा नाद जो दूसरे की अनुपस्थिति में उत्पन्न हो… अकेले नहीं, दूसरे की अनुपस्थिति में…
मेरे मुंह से तुरंत निकला… अद्वैत…
जी…
और मेरी इस गीत की यात्रा पूरी हुई… प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय….
इसे सिर्फ़ सुनना ही नहीं है उस्मान मीर को जब तक गाते हुए नहीं देखेंगे यह जादू नहीं उतरेगा…
आपके ऊपर सरस्वती का आशीर्वाद है शैफाली। सदा बना रहे।
आभार इस प्रेम के लिए
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