एक गाँव जो पुकारता है…

परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, पर आवश्यक नहीं कि सभी परिवर्तन हितकारी ही हों. बदलाव की कुछ बयारें ऐसी होती हैं जो सुकून देती हैं और कुछ जीवन को दूभर बना जाती हैं. मेरा बचपन गाँव में बीता, शहर आने के बाद भी मैं गाँव से सदैव जुड़ा रहा, इसलिए न केवल शहर में होने वाले बदलाव बल्कि ग्राम्य-जीवन में आने वाले बदलावों को भी निकट से देखता-समझता रहा हूँ.
निःसंदेह आज के गाँव भौतिक धरातल पर पहले से अधिक संपन्न हुए हैं, सुख-समृद्धि आई है, लोगों के जीवन-स्तर में व्यापक सुधार हुआ है, आमदनी और खर्च करने की क्षमताएँ बढ़ीं हैं; पर उन्होंने अपनी सहजता, उदारता और परायों को भी अपना बना लेने वाली चिर-परिचित आत्मीयता खो दी है. शहर की आबो-हवा ने वहाँ भी पाँव पसारना-जमाना शुरू कर दिया है. लोगों की खुशियों को किसी की नज़र लग गई है. वे भी शहरी आडंबर एवं चोंचलों के ज़बरदस्त शिकार हुए हैं. उनके तीज-त्योहारों में भी बाज़ार का बाजारूपन प्रविष्ट हुआ है.
इस बार दीपावली के अवसर पर मैंने अपने गाँव के अधिकांश घरों को चीनी झालरों से सजे देखा.सुना था, संपन्नता विकृति लेकर आती है. उसे देख भी लिया. जबकि मुझे याद है कि अपने बचपन में मैं देखता था कि करीब एक महीने पूर्व से ही घर की रँगाई-पुताई शुरू हो जाती थी, कई दिन पूर्व ही दीप और मिट्टी के गोल ढिबरी की तरह के ‘चुक्के’ मंगवाए जाने शुरू हो जाते थे, घर की महिलाएँ मिल-बैठकर दीपों के लिए बाती बनाना शुरू कर देती थीं.
त्योहार से पूर्व उनकी तैयारियाँ एक उत्सवनुमा परिवेश रचती थीं. किसी-न-किसी रीति या मान्यता के बहाने समाज एक-दूसरे के निकट आता था. घर के सभी सदस्य एक साथ मिलकर हुक्का-पाती निकालते थे, जिसमें दरिद्रता को दूर भगाने और लक्ष्मी को आग्रहपूर्वक घर बुलाने का आमंत्रण होता था. आज इन रीतियों के प्रति ग्राम्य-समाज में भी एक उदासीनता देखने को मिलती है. शायद लोग तथाकथित पढ़े-लिखों की नकल करना चाहते हैं.
हाँ, बिहार में छठ अपनी पारंपरिकता के साथ आज भी मौजूद है. पर उसमें भी नाते-रिश्तेदारों, सगे-संबंधियों की पहले जो सहभागिता होती थी, संबंधियों तक प्रसाद-ठेकुआ आदि भेजने का पहले जो चलन था, उसमें कमी आई है. लोग बहुत व्यस्त हुए हैं, उनके पास अपनों के लिए भी शायद समय नहीं बचा है. और इसीलिए गाँव के लोग भी पहले की तुलना में एकाकी और आत्मकेंद्रित हुए हैं.
अब वहाँ प्रेमचंद का वह गाँव नहीं दिखता जहाँ किसी का छप्पर चढ़ाने के लिए बिन बुलाए अनेक लोग भागे चले आते थे; बल्कि उसकी जगह एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ताक-झाँक बढ़ गया है.
मुझे ध्यान है कि मेरे बचपन में मकर संक्रांति पर कई दिनों पूर्व से ही लाई-तिलकुट बनने लगते थे. गाँव की महिलाएँ चिउड़ा कूटने, तैयार करने में जुट जाती थीं. लकड़ी की एक ही ओखल में चार-पाँच महिलाएँ एक साथ मूसल से चोट करती थीं.
ज़रा कल्पना कीजिए कि घर के आँगन में 5-6 ओखलों में जब 15-20 महिलाएँ एक साथ चिउड़ा कूटती होंगीं तो उन सुहागिनों की चूड़ियों की खनखनाहट से संगीत की कैसी स्वर-लहरियाँ फूटती होंगी!.और ताल-मेल ऐसा कि मजाल क्या कि किसी की मूसलें टकरा जाएँ; आज के मैनेजमेंट गुरु टीम-भावना की बात करते हैं, काश कहीं उन्हें यह दृश्य देखने को मिले!
मकरसंक्रांति के बाद भी कई-कई दिनों तक यह त्योहार चलता रहता था क्योंकि कभी ननिहाल से, कभी बुआ के घर से, कभी किसी अन्य रिश्तेदार के घर से तिल-लाई-गुड़-दही के संदेश आते रहते थे. हम बच्चों के लिए वे दिन किसी सपनीले दिन से कम नहीं होते थे. हाथों में लाई या तिल के बड़े-बड़े लड्डू पकड़े हम यहाँ-वहाँ बेफ़िक्र भागते-दौड़ते गाँव के बेताज बादशाह हुआ करते थे. न कक्षा में प्रथम आने का दबाव न कॅरियर का तनाव! पर रिश्तेदार तो छोड़िए, आज के गाँवों के लिए बुज़ुर्ग माता-पिता भी बोझ बन गए हैं. कइयों की बूढ़ी आँखें तो अपनों की बाट जोहते-जोहते पथरा गईं हैं.
सरस्वती पूजा तो हम बच्चों के लिए सबसे बड़ा त्योहार हुआ करता था.लगता था कि इस त्योहार में कोई कमी रह गई तो सरस्वती माता रूठ जाएँगी. और जब ज्ञान की देवी ही रूठ जाएँगी तो ज्ञान हासिल करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता! हम गाँव के बच्चे सरस्वती पूजा अपने स्कूल में ही मनाते थे. विद्यालय की साज-सज्जा; रंगारंग कार्यक्रम की योजना व प्रस्तुति, प्रसाद-निर्माण से लेकर वितरण तक में हमारी सहभागिता होती थी. मूर्ति-स्थापना से लेकर विसर्जन तक में उल्लास और भक्ति का एक ऐसा वातावरण बनता था कि हृदय की सारी कलुषता धुल जाती थी.
आज के बच्चे तार्किक हो गए हैं, छोटी आयु में भी उनके पास हमसे अधिक सूचनाएँ हैं, फिर भी उनमें अनुभव का वैसा वैविध्य नहीं जो हममें था; वे स्मार्ट और मैच्योर्ड हैं, पर वहाँ बाल सुलभ बचपना नदारद है. हम हर चीज से रिश्तों में बंधे थे; किताब-कॉपी-कलम हमारे लिए केवल माध्यम नहीं, सरस्वती माता के प्रत्यक्ष रूप थे. हम विश्वास की थाती लेकर बड़े हुए थे, हम अपने अपनों पर, अपने बड़ों पर आज जैसा भयानक संशय नहीं करते थे. भरोसे का ऐसा भयावह अकाल नहीं था वहाँ…!
पहले गाँव की होली में पूरा गाँव मस्ती के रंग में सराबोर हो जाता था, महीने भर पहले से ही मंडलियां बना-बनाकर लोग फगुआ और जोगीरा गाना शुरू कर देते थे. नीरस, शुष्क या एकाकी रहने वाले लोग भी स्वयं को रोक नहीं पाते थे, उत्सव का रंग उन्हें भी तरल कर देता था, मस्ती के उन रंगों में वासना और कुंठा के लिए कोई स्थान नहीं था, भंग का रंग ऐसा चढ़ता था कि मन पर परत-दर-परत जमी कुंठा की काइयाँ छँटने लगती थी. हँसी-ठिठोली और जीवन के सहज-स्वाभाविक रंगों का ऐसा असर होता था कि हर शख़्स मुक़म्मल और मुक्त हो उठता था.
आज गाँव के लोगों पर भी नक़ली रंग ऐसे चढ़ गए हैं कि समझ ही नहीं आता कि ये वही गाँव हैं, जिन्हें मैंने बचपन में देखा या जिया था. अजनबियत के एहसासों ने हमारे गाँवों को भी अपने आगोश में ले लिया है. रिश्तों में जमी बर्फ़ वहाँ के माहौल को भी अजीब ठंडेपन से भर रही है.
दुर्गा-पूजा और दशहरे पर लगने वाले मेले में हम अपने गाँव से कई किलोमीटर दूर झुंड के झुंड में मेले देखने जाते थे. बच्चे तो बच्चे, गाँव के स्त्री-पुरुष, बड़े-बूढ़े भी हमारे साथ होते. रास्ते भर हम हँसी-ठिठोली करते जाते; कभी थक जाते तो हमारे बड़े हमें कंधों पर बिठा लेते, लाखों की गाड़ी में बैठकर भी वह सुख नहीं मिल सकता जो उस समय उन कंधों पर बैठकर मिलता था. मेले में जाकर खेल-तमाशे, सीटियों-किलकारियों की एक ऐसी दुनिया शुरू होती कि मन अपनी सुध-बुध खोकर उसी में लीन हो जाता था.
समझ ही नहीं आता था कि क्या खरीदें, क्या छोड़ें? उस समय कोई ब्रैंड-वैल्यू जैसा श्रेष्ठता का छद्म मानक तो था नहीं, कुछ खिलौनों, कुछ खेलों, कुछ खाने-पीने की चीजों से ही हमारा दिल बल्ले-बल्ले करने लगता था, छक मजा आ जाता था! और फिर मेले से लौटते हुए हम बच्चे कभी सीटी बजाते, कभी बाँसुरी टेरते, कभी दोस्तों के खिलौनों से अपने खिलौनों की तुलना करते; रास्ते भर धमा-चौकड़ी मचाते घर वापस आते और वापस आकर भी मेले के रंग-बिरंगे किस्सों में खो जाते.
मैं आज के बच्चों को जब त्योहारों के अवसर पर भी टेलीविजन या मोबाइल से चिपके देखता हूँ तो एक तरफ कोफ़्त भी होती है और दूसरी तरफ़ उन पर दया भी आती है. उनके पास साधन तो बहुत हैं, पर सबको अपना मानने वाला समाज ही नहीं है. आज दुर्गा-पूजा तो है, पर न वैसे मेले हैं, न उन मेलों पर उमड़ पड़ने वाला हुजूम!
सब अपने-आप में गुम हैं. अपनेपन का दायरा बहुत सिमट गया है. हमने ‘बोर’ शब्द ही नहीं सुना था, आज के बच्चे बात-बेबात ‘बोर’ हो जाया करते हैं. प्रकृति और परिवेश से कटा-छँटा बच्चा ‘बोर’ ही तो होगा!
आज भी मेरे मन पर वे स्मृतियाँ ज्यों-की-त्यों टँकी हैं; अक्षय-नवमी पर बैलगाड़ियों को तिरपाल या रंगीन परदों से सजाना, उन बैलगाड़ियों में बैठकर घर के सभी सदस्यों का 5 किलोमीटर दूर आँवले के बगीचे में जाना, बैलों की वो रुन-झुन, रास्ते की वो मौज-मस्ती, वहीं बगीचे में खाना बनना और हम सबका पंगत में बैठकर खाना; हम बच्चों का वहीं दिन भर खेलना-कूदना….. कुछ भी तो नहीं भूला; जब कभी मुझे बचपन में चाँदनी रात में नौका विहार जैसे विषय अनुच्छेद लिखने के लिए मिलते तो शरद-पूर्णिमा के खेल और खीर याद आने लगते, अपना गाँव याद आने लगता.
क्या किसी सो कोल्ड पिकनिक स्पॉट पर ऐसे क्षण जिए जा सकते हैं? तरह-तरह की मुद्राओं और अदाओं पर रीझ-रीझ सेल्फ़ी लेने में मशगूल पीढ़ी को न आस-पड़ोस से सरोकार है, न प्रकृति के विविध रूपों की समझ! उन बेचारों का अनुभव-जगत कितना सीमित और एकाकी है!
आज गाँवों से भी धीरे-धीरे वे सभी परंपराएँ लुप्त होती जा रही हैं, जो हमें ”मैं” से हम बनाती थीं. हमारे बच्चों का एकपक्षीय अनुभव-जगत देखकर मुझे उन पर तरस आता है. उनके पास सुनने-कहने को जीवन के कितने कम रूप-रंग हैं? विविधता ही तो एकरसता भंग करती है.
न जाने किस अकाल-वेला में जी रहे हैं हम, जहाँ कंक्रीट के महल तो ख़ूब खड़े हो गए, साज़ो-सामान तो ख़ूब जुटा लिए गए…..; पर उनमें से जीवन गायब हो गया! लोग हैं,… पर ऊबे हुए, थके हुए, अपनों से कटे हुए, नज़रिए से तंग, तरह-तरह के स्वनिर्मित दायरों में सिमटे-सकुचे; जड़ों से छूटे- कटे, छटपटाते, कराहते, कसमसाते लोग; न इधर के, न उधर के;…. ख़ैर…………. कभी गाँव उम्मीद जगाता था, पर आज निराश करता है.
शायद गाँव भी एडवांस व स्मार्ट होना चाहता है, पर मेरा मन है कि बचपन की उसी पारंपरिक सरलता, सहजता, आत्मीयता, भोलेपन, और मिठास को टेरता रहता है….!अक्सर सोचता रहता हूँ कि अभावों में भी भावों से भरा वह ग्राम्य-जन,वह लोक-मन कहाँ खो गया? उसे किसकी नज़र लग गई, क्यों लग गई…? क्या केवल यह सोचकर दिल बहलाया जा सकता है कि बदलाव निश्चित है, इसलिए जो है उसे स्वीकार करना ही हमारी नियति है…..???
– प्रणय कुमार
तब आनंद से जीते थे जब खाने के काम आती थीं ब्लैकबेरी और एप्पल जैसी चीज़े