नायिका -21 : खींचे मुझे कोई डोर तेरी ओर…

आज शाम आपसे बात करने के बाद मन इतना भारी हो गया कि कुछ सूझे ही न कि क्या करूं। सिस्टम भांजे ने ले लिया, नहीं तो ब्लॉग पर ही कुछ करता, इधर उधर डोलता रहा। फिर उनका भला हो, 4 आ गये, उनका समाधान किया, पर फिर ऊपर अपने रूम में जा कर पढ़ने की कोशिश, कभी भूल से हाथ से छूट गयी हो तो बात अलग पर आज तो एक ही पेज को दो बार पढ़ने के बाद, किताब फेंकी, मैंने!
नीचे अभी आया तो भांजा कहीं गया हुआ था, सिस्टम पर थोड़ी देर बैठा, पर नहीं, तबियत नहीं सुधरी, फिर सत्यम शिवम सुन्दरम… हर बार लताजी ने आन्दोलित किया पर आज तो भरा बैठा ही था, उन्होंने सुर लगाया और मैंने सिसकी, उस दिन तो सब लोग थे पर आज अकेला था, खूब रोया, फूट फूट कर, अब ठीक लग रहा है। ऐसा क्यों? इतने पुराने ज़ख्म बांट कर तो हल्का होना चहिये था, या शायद रू-ब-रू बताते हुये का रोना दबा रह गया था? या कुछ और?
आपने मुझे फिक्र में डाल दिया है, मैं किसी की भी, आपकी या ख़ुद अपनी उम्मीद से ज़्यादा मज़बूत हूँ…. पर आप ख्याल रखना अपना और सबका। सारी चीज़ें अपने नियन्त्रण में रखने वाला मैं, कब डोर किसी और के हाथ में चली गयी खबर ही नहीं? ख़ुमारी सी छायी रहती है, कौन सा ऐसा पल है जब बतियाता नहीं रहता, दुनिया को समझने वाला ख़ुद पागल हुआ जा रहा है, इसे कौन समझाए!! कितना असहाय, कैसी बेचारगी, क्या करूं?
बहुत से पढ़े हुये अफसाने आज पहली बार समझ आ रहे हैं। हर गाना जो सुन रहा हूँ नये अर्थ प्रकट कर रहा है, ये सुनवा दूं, ये भी अपलोड कर दूं पर वो अर्थ तो मुझ पर उद्घाटित हो रहे हैं न…. पता नहीं कैसे लगे वो सब गाने, जिन्हें मैं कभी चीप और फ़िल्मी कह नकार देता था।
हर बार ओशो ने ही दुलराया है पर मुझे पता है कि इस बार वो क्या कहेंगे, बल्कि कह ही रहे हैं कि “सौभाग्यशाली हैं वो जिनके जीवन में ऐसे अमूल्य क्षण आते हैं, ऐसे क्षण जो कभी किसी मीरा ने या चैतन्य या रामकृष्ण ने जिये, बहने दो आंसू, ये आंसू हर बार तुम्हें नया कर जाएंगे और तुम किसी नवपल्लवित पुष्प की तरह खिल उठोगे, मत रोको, बहने दो और आनन्दित हो और परमात्मा को धन्यवाद दो कि तुम पर ये क्षण अवतरित हुये, क्यूंकि बिरले होंगे जो इस भावदशा को प्राप्त हुये। भर जाओ अनुग्रह से, हाँ पीड़ा है और पीड़ा भी कोई साधारण नहीं, बहुत ही विलक्षण है पर अमूल्य है जो तुम संसार भर की दौलत देकर भी नहीं खरीद सकते, स्वामी ध्यान विनय तड़पो, खूब तड़पो और जी भर के रो लो और परमात्मा का धन्यवाद मानो कि तुम्हें इस लायक समझा”।
मुझे मालूम है कि यकीन है फिर भी दोहराने की इच्छा हो रही है कि यकीन जानिये, ओशो अक्सर मुझसे बात करते रहते हैं।
हमेशा उनकी मान जाता हूँ, पर इस बार, इस निर्णय प्रक्रिया में आप भी शामिल हैं, क्या करूं? मान लूं जो वो कह रहे हैं?
टेलीपैथी, दोपहर में तो काम कर रही थी तब ही तो मैंने ‘शर्मिंदा हूँ कहा था, काश अभी भी काम कर जाये और अभी ही ये आप तक पहुँच जाए। या प्रकृति को अपना काम करने दूं?
नायिका, मैंने कभी फोन करने से मना नहीं किया….
– बेटू
(15 Aug 2008 at 9:02 pm)
– प्रस्तुतकर्ता माँ जीवन शैफाली
(नोट : ये काल्पनिक नहीं वास्तविक प्रेम कहानी है, और ये संवाद 2008 में नायक और नायिका के बीच हुए ईमेल के आदान प्रदान से लिए गए हैं)
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