नायिका -12 : मांग कर मैं न पीयूँ, ये मेरी ख़ुद्दारी है, इसका मतलब ये नहीं, कि मुझे प्यास नहीं

सूत्रधार –
दो अंक पहले नायक नायिका का अंतिम संवाद कुछ यूं था कि नायिका किसी से झगड़कर खराब मूड लिए बैठी है और सारा गुस्सा नायक पर उतारते हुए कहती हैं “सारे मर्द एक जैसे होते हैं.” जवाब में नायक कहते हैं – वाकई?? सब मर्द एक जैसे होते हैं? अरे नहीं अभी सबसे मिली कहाँ है आप!!! लगता है आज आपकी किसी से लड़ाई हुई है इसलिए ग़ुस्से में नज़र आ रही हैं. चलिए ग़ुस्सा छोड़िये. और किसी को गाली देना हो तो दे दीजिए. और गाली भी वज़नदार होना चाहिए. आपका ये ग़ुस्से से भरा ख़त पढ़ा तो अमृता प्रीतम की एक गाली याद आ गई जो आज तक की सुनी हुई सबसे वज़नदार गाली है या कहें श्राप है और किसी पूर्वजन्म से इससे मैं शापित हूँ – “जा, तुझे अपने महबूब का नाम भूल जाये!”
इस बीच नायक ने नायिका के अनुरोध पर अपने ‘विघ्नकर्ता’ ब्लॉग पर दो लेख भी डालें, जिसका नायक को पता नहीं नायिका ने पढ़े या नहीं, और नायक ने उसे ‘एंटी-क्लायमैक्स’ बताते हुए लिखा था – “पता नहीं हंसी आई या पछतावा हुआ, अच्छा लगा या बुरा बल्कि पढ़ा भी या नहीं पढ़ा. नहीं ही पढ़ा, वरना कान मरोड़ कर लिखवाने वाले की कोई तो प्रतिक्रिया आई होती.”
वह दोनों लेख आप इस लिंक्स पर पढ़ सकते हैं –
अब नायिका ने वे ब्लॉग पढ़े या नहीं पढ़े आज तक यह रहस्य बना हुआ है… वह तो नायक के आख़िरी ख़त का जवाब देते हुए लिख रही हैं –
नायिका –
मुझे नहीं बात करना, नहीं बात करना, मुझे नहीं करना है नहीं नहीं नहीं….
नायक –
इसके 3 अर्थ निकल रहे हैं – 1. ऐसा आप संकल्प ले रही हैं, 2. ये आप मुझे कह रही हैं, 3. खुद को याद दिला रही हैं.
एक चौथा अर्थ भी निकलता है, बताऊँ?
कि मैं गधा हूँ!
हूँ न?
क्या करूँ, ऐसा ही हूँ.
आज तो कुछ लिख भी लिया था मैंने, पर आपका मूड देख कर इरादा बदल दिया.
जो लिखा था वो कुछ अलग ही मिजाज़ का था सो आज फिर गाना ही अपलोड किया- specialy for u किस्म का, अभी सुनिये and its an order.
नायिका –
कितना बोलते हो गट्टू…… पटर पटर पटर बस बोले जा रहे हो, चुप रहो थोड़ी देर….
इतना ध्यान ब्लॉग लिखने में लगाया होता तो आप मेरे ब्लॉग को नहीं मैं आपके ब्लॉग को अमिताभ बच्चन का ब्लॉग कह रही होती…
और मैंने सुना है आपके पास 5000 किताबें हैं…… पढ़ ली हो तो बेच क्यों नहीं देते, जब यही नहीं पता कि उन किताबों को पढ़ने के बाद उनको अपने ब्लॉग के पाठकों को कैसे पढ़वाया जाए!!!!!!!
हाँ, गाने अच्छे लगे हैं… मनाना आता है मोटू को…
और क्या कहा, मेहबूब का नाम भूल जाऊँ?
मेहबूब का नाम ज़ुबान से नहीं लिया जाता, जब ख़ुद को भुला देती हूँ तो उसका नाम भी कहाँ रह जाता है…. बस एक नदी रह जाती है आँखों में… एक आँख में गरम पानी का कुंड और दूसरे में ठंडे पानी का… दोनों में एक एक बार डुबकी लगाती हूँ… और जब बाहर निकलती हूँ, तो लगता है कोई एक जन्म से गुज़रकर दूसरे जन्म में प्रवेश कर गई हूँ और कुछ तलाश रही हूँ या किसी को तलाश रही हूँ…
सच कहा तुमने शायद अपने मेहबूब का नाम ही नहीं उसका चेहरा भी भूल गई हूँ तभी तो न जाने किसे किसे क्या-क्या कहकर पुकारती रहती हूँ …. किसी को साथी, किसी को प्रभु, किसी को जादुई चिराग़ का जिन्न, न जाने क्या क्या… ये सोचकर कि शायद इन्हीं में से कोई होगा जिसे पिछले कई जन्मों से तलाश रही हूँ, लेकिन जब वे लोग कुछ कदम साथ चलने के बाद लौट जाते हैं तो लगता है नहीं इनमें से वो कोई नहीं था… क्योंकि मेरी तलाश में और मेरी पुकार में कोई कमी नहीं इस बात का यकीन है मुझको… ख़ैर, न जाने क्या-क्या कह गई तुमसे….
नायक –
ज़्यादा देर चुप रहूँ तो तबियत खराब होने लगती है, आपके यहाँ थोड़ी देर का मतलब कितनी देर होता है?
‘मांग कर मैं न पीयूँ, ये मेरी खुद्दारी है!
इसका मतलब ये नहीं, कि मुझे प्यास नहीं’!!
नायिका –
कल किसी और काम में व्यस्त थी, ऑफिस नहीं आई थी…
कल से मन ख़राब है… जीवन व्यर्थ लगने लगा है, लग रहा है मैं ये क्या कर रही हूँ, ये ऑफिस, ये ब्लॉग, ये मीडिया की चमक धमक… शायद ये सब नहीं चाहिए मुझे…
आप चुप न रहें, मेरा मूड ऐसा ही रहता है, कभी खूब बोलती हूँ कभी किसी से बात करने का मन नहीं करता…
आज हेड फोन नहीं लाई हूँ इसलिए गाने नहीं सुन सकूँगी… मन भी नहीं है… थोड़ा चुप रहना चाहती हूँ आज…. हालांकि उसके बाद भी बहुत कुछ कह दिया…
नायक –
Once again I am asking you, WHO ARE YOU? पता है अब क्यों कह रहा हूँ आज ही मैं लिखने वाला था उस निर्णायक क्षण के बारे में जब मुझे जनाब हबीब तनवीर साहब और ओशो में से एक को चुनने का फैसला लेना था और किस तरह से मैंने ओशो आश्रम में पहला क़दम रखा और…. चलो छोड़ो फिर कभी…
आपका भाई या पति होना चाहिए था मुझे या कम से कम आपके आसपास ही होना था….. अभी तक की सारी ज़िंदगी घर और बाहरवालों के दोहरे मानदंडों से सफलता पूर्वक जूझने में बिता दी, सिर्फ एक असफलता हाथ लगी अपनी एक दोस्त के मामले में… उसको बहुत समझाया पर वो मानी ही नहीं…
नायिका –
किस दोस्त को क्या समझाया? और वो किस बात के लिए नहीं मानी? अब तो मुझे डर लगने लगा है… साफ-साफ बताओ क्या बात है?
नायक –
मैं डरा रहा हूँ? कैसे? मैंने तो ऐसी कोई कोशिश नहीं की, पर आप कह रही हैं तो आप ही डर रही होंगी.
आगे कुछ लिखूँ उसके पहले…
शर्तों पर मैं काम नहीं करता, आप प्यार से बोल दे कि मोटू सर काट के दे दो, मोटू जवाब तक नहीं देगा और सर कट जायेगा, अब ज़रा बात को यूँ बोलें कि कनिष्ठिका (सबसे छोटी उंगली) हिलाओ वरना…, तो बंदा उंगली न हिला कर जवाब देगा कि आप अपना वरना ही कर दें.
इसे अहंकार न समझें, बस ऐसा ही हूँ. प्रलोभन, दबाव, धमकी मुझसे काम करवाने के हथियार ही नहीं. बंदे की ताबेदारी ब्लॉग से साबित हो नहीं चुकी? आप ऐसे ही पूछ लेतीं.
फिर आप से गुज़ारिश है कि सीरत से मजबूर को मग़रूर न समझें.
क्या लिखा था मैंने…. हाँ, जीवन भर दोहरे मानदंडों से जूझता रहा… विशेषतः महिलाओं के प्रति अपनाये जाते double standards. जो बात या छूट घर के लड़के लिये सही है वो लड़की के लिये क्यूं नहीं?
तीनों बहनों ने बिरादरी से बाहर शादी की. सबसे पहले लड़ा सबसे छोटी के लिये, उसके NCC join करने से लेकर, अलग अलग शहरों में camps attend करने तक. फिर उसे job करने का शौक जागा, अब आप बड़े साहब को तो जानती नहीं न, क्या तूफान मचा पर job किया उसने. फिर ऐसे ही दोनों की शादियाँ हुईं.
अब बात मेरी दोस्त की, उससे ज़्यादा मानसिक रूप से प्रताड़ित मनुष्य मैंने आज तक नहीं देखा. अब प्रताड़ना के कारणों पर भी गौर फरमा लें, ससुराल वालों ने झूठ बोल कर शादी करी, लड़की लड़के से ज़्यादा पढ़ी-लिखी, अब चूंकि उसके पर न निकल आये तो उसे दबा कर रखना ज़रूरी है.
मुख्तसर किस्सा ये कि उसे आगे पढ़ने के लिये समझाया, सारी बातों को अपने मायके वालों को बताने को कहा, पर नहीं साहब, एक न सुनी. मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त. करना तो उसे ही था, जब उसमें ही साहस नहीं तो मुझे तो असफल होना ही था.
कोई दूसरे की लड़ाई कितनी देर लड़ सकता है, बिना खुद उसके सहयोग के? अभी हार नहीं मानी, उसके पिता से मुलाक़ात हुई तो मैंने ही उन्हे सारी जानकारियाँ दी और आगे सोचने को कहा.
विस्तृत उसी फुरसत में जब आप मुझसे किताबें सुनेंगी…
मान लूँ कि डर दूर हो गया?
वैसे डर क्या था?
सूत्रधार –
“विस्तृत उसी फुरसत में जब आप मुझसे किताबें सुनेंगी…”!!! जिसे अभी तक नायक ने देखा नहीं, आवाज़ तक नहीं सुनी, उससे साधिकार कह दिया ‘जब आप किताबें सुनेंगी…’ यानी क्या नायक जानता था कि एक दिन यह बात सच हो जाएगी और नायिका नायक के रूबरू बैठकर ढेरों किताबें सुनेंगी!!! क्या नायक को बातों का पूर्वाभास हो जाता है? या वह सच में वही है जो नायिका उसे प्यार से पुकारती हैं…. “जादू”?
(नोट : ये संवाद काल्पनिक नहीं वास्तविक नायक और नायिका के बीच उनके मिलने से पहले हुए ई-मेल का आदान प्रदान है, जिसे बिना किसी संपादन के ज्यों का त्यों रखा गया है)
कहानी को बेहतर समझने के लिए कृपया इसके पहले के सारे भाग अवश्य पढ़ें
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