मासिक धर्म, माहवारी या ‘कपड़े से’ होना

आज से 54-55 साल पहले, 1963 के जून माह में, जब मेरी गर्मी की छुटियाँ थीं, मैं पूरे दस दिन के लिए अपनी बुआ फूफा के पास लखनऊ आ गया था. खूब मस्ती के दिन थे वे. पर क्या मस्ती की थी तब, ये ठीक से याद नहीं, बस चिड़ियाघर, अमीनाबाद और हजरतगंज जैसी जगहें यादों में कौंधती सी हैं.
बाद में ग्रेजुएशन के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में होस्टलर बना. अब तो बीस साल से यहाँ का स्थाई निवासी हूँ और लखनऊ को करीब से देख पा रहा हूँ.
अपनी बात को फिर से वहीं जोड़ता हूँ, यानी 1963 के लखनऊ ट्रिप से. उसी दस दिन की अवधि में मेरी मस्ती में तब व्यवधान सा आ गया जब चार पांच दिन के लिए मेरी बुआ जी ने रसोई चौके का काम बंद कर दिया.
घर में हड़ताल जैसी हालत में मैं और फूफा जी को तीन प्राणियों के पेट भरने के लिए कितने ही जतन करने पड़े. सत्तू, बाजार की पूड़ी कचौरी, दशहरी आम, लखनौवा खरबूजे, लईया चना और कभी कभार फूफा जी के हाथों बनी कच्ची पक्की रोटी, दाल और सब्जी वगैरह से काम चलता.
बुआ की इस हड़ताल के कारण पर मेरे प्रश्नों का मुझे कोई उत्तर न मिला फूफा जी से. बुआ से पूछने पर वे बस मुस्करा कर टाल देतीं मेरी बात को.
खैर तीसरे दिन मेरे ज्ञान चक्षु अपने आप भक्क से खुल गए. आखिर मैं सत्रहवें साल में था, विज्ञान का विद्यार्थी था और जिज्ञासु भी. मैं समझ गया कि बीस इक्कीस साल की सुंदर सी मेरी बुआ ‘कपड़े से’ हैं, यानी उन्हें मासिकधर्म या माहवारी हो रही है. वे पूरे पांच दिन तक छुतहर बनी रहीं और हमें दूर से चौका रसोई के काम में निर्देश देती रहीं.
अब आइये सीधे 2018 में!
इसी लखनऊ शहर में मेरे तीन चार बहुत करीबी रिश्तेदार हैं. अक्सर आना जाना होता है, खूब खुलापन है व्यवहार में. तीन दिन पहले उन्हीं में से एक परिवार की सत्रह साल की लड़की आयी हमारे यहाँ. स्वस्थ, सुंदर, लम्बी, शालीन और सौम्य लड़की. पढ़ने और खेलने में समान रूप से मेधावी और सुसंयत.
रात में वो खाने के बाद पर्स में से एक टेबलेट निकालकर पानी के साथ गटक गयी. मैंने यूँ ही पूछ लिया कि ये कौन सी दवा ली है बेटी? उस लड़की ने पूरे इत्मीनान से मुझे सीधी निगाह से देखते हुए कहा,” मुझे पीरियड्स में काफी दर्द होता है, पूरा फ्लो भी नहीं आता बाबा जी. उसी की दवा लेती हूँ और काफी आराम भी मिलता है मुझे.”
मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, “वैरी गुड”.
आप क्या कहेंगे इस संवाद पर ये तो आप ही जानें, लेकिन मुझे तो यही लगा कि अब हमारी बेटियाँ अपने देह को ठीक से समझती हैं. व्यक्तिगत स्वास्थ्य और साफ़ सफाई के प्रति सचेत हैं. अपने भले बुरे की समझ है उन्हें. लड़कियों के इस जरूरी बदलाव पर हम गर्व कर सकते हैं. हमें इसे पूरी सहजता से लेना होगा और उन पर भरोसा भी करना होगा. मोरल पुलिसिंग से बात नहीं बनने वाली और खाप व्यवस्था तो निहायत ही बर्बर रूप है पुरुषवादी घिनौनी सोच का.
दूसरी ओर, लड़कियों और औरतों का यह खुलापन कुछ कुंठित यौन मानसिकता वाले पुरुषों को बेवजह उत्तेजित कर देने वाला कारण लगता है. मन दुखी हो जाता है जब हर उम्र की औरतों, बच्चियों के साथ तरह तरह के यौन अपराधों की खबरें मीडिया पर प्रमुखता से आतीं हैं.
वे सिर्फ खबरें नहीं होती बल्कि एक ख़ास मानसिकता वाले मनोरोगी पुरुषों की विकृत रूचि का पोषण करती हुए सॉफ्ट पोर्न जैसी चीज़ लगती हैं. क्या स्त्रियों की ये सहजता और खुलापन स्वागतयोग्य नहीं है? पुरानी सोच के पुरुष जो आज भी स्त्री को एक वस्तु की तरह देखते हैं उन्हें अपनी दूषित प्रवृत्त्तियों पर नियंत्रण करना होगा. इसकी जिम्मेदारी समग्र समाज की है, क़ानून की है और क़ानून को बनाने और लागू करने वाले तंत्र की है.
और अब एक जरूरी और बेहद कड़वी बात …..
सऊदी अरब जैसे देशों में बलात्कार का आरोप सिद्ध करने कराने में कई साल या चार छः महीने नहीं लगते. बस एक माह में ही अभियुक्त की आँख पर पट्टी बाँध कर और दोनों हाथ पीठ पीछे बाँध कर भरी भीड़ के सामने शूट कर दिया जाता है. उसे चार पांच गोलियां करीब से मारते हैं, वो तड़पता है और भीड़ खुश होकर चिल्लाती है.
ये दृश्य कितना ही भयानक लगता हो लेकिन स्त्रियों और मासूम बच्चियों पर खुद को जबरदस्ती थोपकर उनका शीलहरण करने वाले दरिदों के लिए ये दंड पूरी तरह से उचित है. कई साल गुजर जाने के बाद निर्भया काण्ड के दोषी आज भी जिन्दा हैं ये हमारे दंड विधान की कमजोरी का पुख्ता सबूत है.
– देव नाथ द्विवेदी