मानो या ना मानो – 6 : अग्नि के मानस देवता

मानो या न मानो भाग-5 के आगे…
चार साल बाद मिली उस ड्रेस को पहनने के बाद मैं खुद को कहीं की परी समझने लगी थी, उम्र को मैंने कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया इसलिए कोई भी ड्रेस किसी भी उम्र में पहनने में मुझे कभी कोई झिझक नहीं हुई।
तो मेरी वह ड्रेस देखकर सामने रहने वाली एक लड़की ने किसी स्कूल-कॉलेज के फंक्शन में पहनने के लिए ड्रेस माँगी। सबने कहा भी इतनी महंगी ड्रेस क्यों दे रही हो, और उसको तो आएगी भी नहीं तुमसे कितनी मोटी है…
लेकिन मेरे अंदर पता नहीं कैसा दानवीर कर्ण कुण्डली मार के बैठा है… खुद भूखी रहकर भी अपने मुंह का निवाला सामने वाले को दे सकती हूँ… फिर ये तो मात्र एक कपड़ा है… ना कहना तो मैंने जीवन में कभी सीखा ही नहीं… उसने वो ड्रेस पहनी और अगले दिन उदास मुंह बनाकर लहंगा लौटाने आई- भाभी लहंगा ज़रा सा टाइट था तो पहनने में फट गया…
मैंने लहंगा देखा… वास्तव में अच्छा खासा फट गया था… फिश कट लहंगा मतलब कमर से बिलकुल टाइट होता है पैरों से और संकरा और फिर बिलकुल नीचे जाकर चौड़ा होता है… मछली का आकर बनाता है इसलिए उसे फिश कट लहंगा कहते हैं…
मैंने उसे कहा- कोई बात नहीं मैं अपने टेलर से रिपेयर करवा लूंगी…
लेकिन कुछ दिनों बाद अचानक उस लड़की के घर से कुछ लोगों के रोने की आवाज़ आई… मैंने दौड़कर दरवाज़ा खोला, चूंकि उसके घर का दरवाज़ा मेरे घर के ठीक सामने था, तो दरवाज़े पर मैंने उसकी माँ को नीचे ज़मीन पर दोनों पैर फैलाए छाती पिटते हुए रोते देखा, आसपास लोगों की भीड़ जमा थी, मैं उसकी माँ के पास गयी, उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे और पूछा क्या हुआ… आसपास खड़े लोगों ने बताया लड़की ने पंखे से लटक के आत्महत्या कर ली है…
मेरा दिल धक् से बैठ गया… क्यों, क्या, कैसे जैसे प्रश्न उस समय क्या पूछती… बाद में पता चला वो किसी के प्रेम में थी… लड़के ने उसे स्वीकार नहीं किया तो…
मैं उस लड़की को अक्सर छत पर उदास टहलते देखती थी बहुत बार मन भी किया कि जाकर उससे बात करूं, पूछूं उसे क्या हुआ लेकिन न जाने कौन सी चीज़ थी जिसने मुझे रोके रखा… मुझे इस बात का अफ़सोस होने लगा काश मैंने उससे बात कर ली, होती शायद वो अपना दिल हल्का कर लेती तो ये दुर्घटना न हुई होती… लेकिन फिर वह लहंगा जीवन में मैंने फिर कभी नहीं पहना…
इस बीच स्वामी ध्यान विनय से मेरा संपर्क हो गया था… मैं इंदौर में थी तब उनको ये किस्सा सुनाया था… तब उन्होंने भी यही कहा… मन था तो कर लेना चाहिए थी एक बार बात… चलिए जो हुआ अब उसको भूल जाइए…
लेकिन मैं उसे भुला नहीं पा रही थी, अपनी आँखों के सामने खेलती कूदती लड़की के साथ ऐसा हो जाए तो कोई कैसे भूल सकता है…. ऐसे मैं एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो मैं एमी माँ की पुस्तक वर्जित बाग़ की गाथा पढ़ रही थी… मेरे लिए यह पुस्तक किसी गीता से कम नहीं… क्योंकि उसमें लिखी एक कहानी ‘छठा तत्व’ मुझे मेरी और स्वामी ध्यान विनय की ही कहानी लगती है…
लेकिन उस दिन मैं एक और कहानी पढ़ रही थी… आग से निकलने वाले व्यक्ति के बारे में … मैं सबसे आगे वाले कमरे में बैठकर पढ़ रही थी जिसका दरवाज़ा उस लड़की के घर के दरवाज़े के बिलकुल सीध में था… पढ़ते हुए लगा जैसे उसके घर के दरवाज़े से कोई किरण तेज़ी से निकलकर मेरे घर के दरवाज़े की ओर बढ़ती हुई आ रही है… मैंने पुस्तक तुरंत बंद कर दी…
मन में शंका आना स्वाभाविक थी, क्योंकि तब मेरी ध्यान विनय से सिर्फ फोन पर बातचीत होती थी, हमारी मुलाक़ात नहीं हुई थी, इसलिए मैं कोई जोखिम लेना नहीं चाहती थी.
ये केवल किसी की कहानी होती तब भी मैं इसे नज़र अंदाज़ कर देती लेकिन एक तो अमृता प्रीतम की किताब, दूसरा किताब में माइकेल क्रोनेन का नाम लेते हुए लिखा था कि ये वो किस्सा है जो उन्हें जे कृष्णमूर्ति ने खुद सुनाया था… जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी पुस्तक “The Kitchen Chronicles. 1001 Lunches with J. Krishnamurti” में किया है.
संक्षिप्त में किस्सा कुछ यूं है कि एक महिला का प्रेमी मर जाता है, एक दिन महिला दुखी मन से आग के सामने बैठी अपने प्रेमी को याद कर रही थी और अचानक से आग की लपटों से उठकर वो सचमुच उसके सामने खड़ा हो जाता है… और उसके साथ वो प्रेम के वशीभूत होकर सम्भोग भी करती है… लेकिन धीरे धीरे उसे लगता है कि वो उस आदमी के चंगुल में फंसती जा रही है, और वो उसे अपने हिसाब से नियंत्रित करने लगता है…
वो स्त्री जे कृष्णमूर्ति के पास जाती है, वो उसे उपाय भी बताते हैं, उस छाया पुरुष से मुक्ति भी पा लेती है लेकिन अपने कमज़ोर औरा के कारण कुछ वर्षों बाद वो दोबारा उसके वश में हो जाती है…
ब्रह्माण्ड की सारी ऊर्जाएं केवल हमारे लिए ही निर्मित हैं ये हम पर निर्भर करता है कि हम उसे सकारात्मक शक्ति बनाते है या नकारात्मक… जैसे बिजली का उपयोग हम प्रकाश फैलाने के लिए भी कर सकते हैं, और किसी को करंट देकर मौत के मुंह में सुलाने के लिए भी… ब्रह्माण्ड की ऊर्जा इसी विज्ञान पर काम करती है…
बहुत वर्षों बाद अग्नि की इसी ऊर्जा को किस तरह से सकारात्मक रूप से उपयोग कर ध्यान, ज्ञान और अध्यात्म की ऊंचाइयों को प्राप्त किया जा सकता है उसका वर्णन पढ़ा मेरे गुरु श्री एम की पुस्तक “एक हिमालयवासी गुरु के साए में : एक योगी का आत्मचरित”.
पुस्तक में श्री एम बताते हैं कि उनकी आँखों के सामने उनके गुरु जिन्हें वो बाबाजी कहकर बुलाते हैं, ने अग्नि का आह्वान किया, तो एक लपट जलती धुनी से उठकर देवदार के वृक्ष जितनी बड़ी हुई.
जब बाबाजी ने उसे श्री एम की नाभि को छूने का आदेश दिया तो लपट ने झुककर श्री एम की नाभि को छुआ… श्री एम ने ऊर्जा के उस स्तर को अनुभव किया जिसके लिए किसी तपस्वी को बरसों तपस्या करना पड़ती है. लेकिन यह श्री एम के पिछले जन्मों की तपस्या का ही फल था जो उन्हें इस जन्म में प्राप्त हो रहा था…
उसी अग्नि के बारे में बाबाजी बताते हैं – “यह केवल गोचर आग ही नहीं है जिसे अग्नि कहा जाता है. हर तरह का ज्वलन अग्नि है. अपचय और उपचय की प्रक्रियाएं जो हमारे शरीर का पोषण करती हैं, उन्हें भी पाचन अग्नि कहा जाता है, इसी तरह इच्छा-आकांक्षाओं की अग्नि, चाहे वह अधोमुखी हो या ऊर्ध्वमुखी.
अगर पहले तुम्हारी कोई प्रेमिका थी तो क्या तुम उसे अपनी “पुवर्षा लौ” नहीं कहते? “पुराना पानी” या “पुवर्षा वायु” कोई नहीं कहता. क्योंकि प्रेम, इच्छाएं, प्रेरणाएं ये सब एक तरह की आग हैं. कल्पना भी. इसलिए सदियों से अग्नि की पूजा होती आई है.
विश्वास करो, सारी प्रकृति की तरह अग्नि का अपना खुद का मानस है. हमारा मानस अग्नि, आग के देवता, के मानस से घनिष्ठता से जुड़ा है. यहाँ तक कि इसकी लपटें हमारी किसी भी इच्छा को पूरा कर सकती हैं.
कुछ रहस्य रहस्य ही बने रहते हैं, उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द पूरे नहीं पड़ते. बस इतना कह सकती हूँ कि इन गुरुओं का ही आशीर्वाद है कि मैंने अग्नि को हमेशा से देवता की तरह पूजा है, चाहे प्रेम की अग्नि हो, चिता की, दीये की, हवन की, देह की या आत्मा की.
मेरे एक और गुरु की पुस्तक “युगन युगन योगी” से एक अद्भुत किस्से का ज़िक्र मानो या ना मानो के सातवें और अंतिम भाग में…
– माँ जीवन शैफाली
मानो या ना मानो -7 : महासमाधि की झलक