जीवन-लीला : कृष्ण तत्व का जन्मोत्सव

नायक से मिलने से पहले नायिका जीती थी मध्य मार्ग में… थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-सा प्यार, थोड़ी-सी नफ़रत, थोड़ी-सा जीवन, थोड़ी-सी मृत्यु…
और आज?
नायिका –
आज अपनी परछाई बनाकर तुम मुझे वहां तक ले गए हो जिसे अति कहते हैं… extreme में जीना, खतरनाक ढंग से जीना… जीने का और कोई तरीका ही नहीं होता जानती हूँ. लेकिन आज भी घबरा जाती हूँ उस slope पर खड़े-खड़े कि ज़रा-सा पैर फिसला और मैं सर्रर्रर से नीचे…
कितना तो हौसला देते हो रोज़ तुम, कितना तो कस के जकड़ रखा है तुमने मुझे गिरने से बचाने के लिए… अपना “सबकुछ” मुझे समर्पित कर दिया है… कहते भी हो आ जाओ मेरी पीठ पर बाकी का सफ़र तुम्हें पीठ पर बिठाकर पूरा कर लेंगे…
फिर भी ये मेरा “मैं” जो है… अड़चन दे रहा है … बार-बार बीच में आ जाता है… इसे हमारे स्वभाव का अंतर कह लो या “स्व” “भाव” की दो अलग पगडंडियों की यात्रा कह लो, जो हमें हमारे राज मार्ग तक तो ले ही जाएगी लेकिन … उन पगडंडियों की भटकन तो अपना-अपना नसीब भोगने के लिए अभिशप्त है ना?
हां मैं ये भी जानती हूँ मैं जिसे अभिशाप कहती हूँ तुम्हारे लिए वो भी वरदान है.. और तुम चाहते हो कि मैं इस अभिशाप को वरदान कहना शुरू कर दूं… लेकिन हे मेरे कृष्ण तत्व! जब तक मेरा ये अर्जुन-भाव रणभूमि पर विचलित है, जब तक सारे अभिशाप, वरदान बन जाने की यात्रा पर है, तब तक तुम्हारा प्रेम ही मेरा साहस है….
मेरी जिज्ञासाओं और प्रश्नों से तुमने कभी मुंह नहीं फेरा लेकिन तुम्हारा कहीं और देखकर विचार करना भी मुझे उद्वेलित करता है कि कहीं तुम्हारा मुझसे ध्यान हट तो नहीं गया?
इसे असुरक्षा का भाव कतई नहीं समझना ये उत्तर की प्रतीक्षा में खड़े उस यक्ष प्रश्न की ही शाखा है कि – “मैं आखिर कौन हूँ? और क्यों चुना गया है मुझे तुम्हारी जीवन-मृत्यु-संगिनी के रूप में? मेरी पात्रता का कौन-सा ऐसा भाग मुझे दिखाई नहीं दे रहा जहां मैं कह सकूं… मैं, मैं नहीं तुम ही हूँ…
जन्मों की यात्रा का वो कौन-सा पड़ाव है जो मुझे विस्मृत हो गया है और तुम्हें याद है.. क्यों मेरी आँखें उस सूर्य को नहीं देख पा रही जो क्षितिज का सीना चीरकर उदित होने को है और मैं अंधियारी रात के रहस्यमयी अँधेरे में मुंह छुपाये तुम्हारी परछाई से बार बार छिटक जाती हूँ … क्यों मेरे कृष्ण?
– इस राधा, मीरा, रुक्मणी तत्व को अपने कृष्ण तत्व का जन्मदिन शुभ रहे…
(ध्यान बाबा के जन्मदिवस माह पर लिखा पहला लेख, जन्मदिवस 9 सितम्बर है)
नौ नंबरियों के बारे में कहा जाता है कि ये सबसे शक्तिशाली नम्बर होता है. नौ नम्बर में जो भी नंबर जोड़ो उसका जोड़, जोड़ा गया नंबर ही होगा.
अर्थात यदि आप नौ में 1 जोड़ो तो 9+1=10 यानी 1+0 = 1
9+2= 11 = 1+1 = 2
9+3 – 1+2 = 3
इसलिए कहा जाता है कि आप नौ नम्बरी के साथ रहकर भी अपना व्यक्तित्व नहीं खोते, उसके सारे गुण अपने अन्दर जोड़ लेने के बाद भी आप, आप ही रहेंगे.
इसी तरह आप नौ में किसी भी संख्या का गुणा करेंगे तो नौ ही पाएंगे…
जैसे 9×1= 9
9×2=18 = 1+8=9
9×3=27=2+7=9
9×4=36- 3+6=9
यानी आप नौ नम्बरी के साथ गुणित होने के बाद आप नहीं रह जाएंगे… नौ नम्बरी जैसे हो जाएंगे.
अब ये आप पर निर्भर करता है आप नौ नम्बरी के साथ जुड़ कर अपने जैसा रहना चाहते हैं या उसके गुणों के साथ गुणित हो कर उसके जैसा हो जाना चाहते हैं.
मेरा तो यह व्यक्तिगत अनुभव रहा है मैंने जितने भी नौ नम्बरी देखे हैं सब एक से बढ़कर एक दस नम्बरी होते हैं. एक नौ नम्बरी तो मेरे ही जीवन में है, स्वामी ध्यान विनय. इस नौ नम्बरी के साथ तो गणित ही नहीं, मेरा रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र और जीवनशास्त्र सारे शास्त्र उलझे हुए हैं… इसलिए आइये हम बात करते हैं कृष्ण की जिनका जन्म नवमी को नहीं अष्टमी को हुआ…
इसलिए जन्माष्टमी, ध्यान बाबा का जन्मदिन और अगस्त और सितम्बर दोनों माह मेरे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अगस्त में मेरी माँ और पुत्री दोनों का जन्मदिन आता है, इसी माह में मेरी मानस माँ एमी का भी जन्मदिन आता है और इसी अगस्त में 2009 में जन्माष्टमी 14 तारीख को आई तब बब्बा(ओशो) दीक्षा देकर शैफाली को माँ जीवन शैफाली बनाया…
मेरे व्यक्तिगत जीवन पर बहुत सारे प्रश्न उठते रहते हैं, प्रश्न मेरी लेखनी पर भी उठता है और प्रश्न मेरी आध्यात्मिक यात्रा के साथ जीवन को इतनी शिद्दत से जीने पर भी उठता है… मैं अमूमन जवाब नहीं देती क्योंकि मेरे ज्ञात शब्दों के पास अज्ञात के अर्थ समझाने का सामर्थ्य नहीं है लेकिन कभी कोई बात मेरे मन मुताबिक़ मिल जाती है तो साझा कर देती हूँ.
तो अमित अज्ञेय आत्मन् के शब्दों में अपनी बात समझाऊँ तो कुछ यूं है –
कृष्ण : चेतना का सहजतम शिखर
बात अगर कृष्ण की करो तो शुरु करो उन छह निरपराध बड़े भाइयों से जो सिर्फ इसलिए पछाड़कर मारे गए कि कहीं वे कृष्ण न हों।
बात उस बहन की भी करो जो दुष्ट मामा के हाथ से फिसलकर अदृश्य हो गई उसके काल का संकेत देकर (योगमाया)।
उसकी भी बात करो तो खुद बचपन से प्राणघातक षड़यंत्रों से खेलते हुए बड़ा हुआ। हर बार मौत से दो कदम आगे चलकर खुद को भी बचाया और अपने पर भरोसा करनेवालों को भी। जेल में ही पैदा हुआ।
पूरा जीवन आर्यावर्त में शक्ति संतुलन में झोंक दिया पर खुद एक गाँव की जागीर भी नहीं रखी।
सत्य के प्रति निष्ठा इतनी गहन कि सत्य की रक्षा हेतु असत्य के प्रयोग से भी परहेज नहीं।
धर्म के पक्ष में खड़े अर्जुन ने जब अपने मोह के आगे अस्त्र डालने चाहे तो इसने अपना ईश्वरत्व प्रकट किया कि “ठहर ! तू कुछ नहीं है सब मैं कर रहा हूँ। तू इसे साधना समझ। ये तेरा निर्वाण पथ है।”
शक्तिपात का जो गुह्यतम ज्ञान अबतक कोई सिद्ध किसी शिष्य को बहुत ही पावन वातावरण में कहीं सघन वन में या गिरि कंदरा में देता था, इस सद्गुरु ने अपने शिष्य अर्जुन को रक्तसंबंधियों की रक्तपिपासा से आसक्त भूमि में दिया।(गीता)
ये इस अवतार का प्रयोजन भी सिद्ध करता है क्योंकि इस घटना से भविष्य में संदेश जाता है कि “यदि ऐसी भूमि में आत्मज्ञान हो सकता है जहाँ रक्तसंबंध ही रक्तपिपासु हो रहे हों, तो किसी सामान्य व्यक्ति को उसके घर में क्यों नहीं हो सकता???”
इस संदेश का असर था मध्यकाल का विराट संत आंदोलन। जब सनातन इस्लाम के खूनी खेल से त्रस्त था तब हर गाँव में कोई नानक, कोई कबीर, कोई दादू, कोई गोरख, कोई सहजो, दया, चरणदास, कोई भीखा, कोई पलटूदास, कोई मीरा, कोई रैदास ऋषियों की अध्यात्म ज्योति लिए बैठा सनातन संस्कृति को जीवंत रखे हुए था।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के प्राणों में भी गीता का ही गुंजन था…. “न हन्यते हन्यमाने शरीरे।”
फिर धर्म राज्य की स्थापना में स्वयं का खानदान भी रोड़ा बनते दिखा तो उसे भी समाप्ति की ओर जाने दिया।
अंतत: स्वयं प्रभास पट्टन के नीले समंदर का तीन नदियों से संगम देखते हुए एक व्याध के बाण का निमित्त चुनकर लीला का पटाक्षेप किया।
बहुत सस्ता है उसके नाम पर भाँडगिरी करना, छिछोरापन करना या उसके लीचड़ भक्त बनकर स्वयं को छलना।
और दुरूहतम है उसे अपने भीतर जगाना… कृष्ण को… जो आकर्षण करता है सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् को।
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मैं बस इसी सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् को ध्येय बनाकर जीवन-लीला खेल रही हूँ…
समय की विपरीत धारा में जैसे कृष्ण ने पूरा पर्वत अपनी एक उँगली पर उठा रखा था, मुझे लगता है मैंने भी अपनी दुनिया को उसी तरह एक उँगली पर उठा रखा है। जो आस्था और विश्वास का चौगा पहने उसके नीचे आता गया, मैं उसे अपने आँचल में छुपाती गई।
मैंने उसे पूरे शिद्दत से थामे रखा है, जिसे अपने अंदर के अंतरिक्ष का एक तारा भी मेरे आँसू से मिलता जुलता लगता है, जिसे अपने अंदर के समन्दर का एक मोती भी मेरी मुस्कुराहट-सा लगता है वो चला आता है, देखता है, परखता है और मेरी दुनिया में अपनी जगह ढूँढता है।
जिसे मेरी ताकत पर शक होता है वो वहाँ से लौट जाता है, अपने पैरों के निशान मेरी आँखों में छोड़कर। जब भी उन लोगों को देखती हूँ, आँखें चमक उठती है। उनको पुकारती नहीं, क्योंकि उनका डर उनकी आँखों में साफ दिखाई देता है। क्योंकि उन्हें कोई एक जगह नहीं मिल पाई, उन्हें मेरी पूरी दुनिया में विचरना पड़ा, कोई भटकन कहकर लौट गया, कोई निर्वात कहकर। किसी को लगा शायद मैं अपनी दुनिया को बहुत दिनों तक थामे नहीं रख सकूँगी और वे सब उसके नीचे दबकर मिट्टी हो जाएँगे।
कुछ आए जिन्होंने ऊपर भी देखा और मेरे विश्वास की तरफ अपना हाथ बढ़ाकर मेरी दुनिया को उसी शिद्दत से थाम लिया, जिस शिद्दत और विश्वास से मैंने थाम रखा था। ऊपर की ओर हाथ बढ़ते गए और मेरी दुनिया सुरक्षित होती गई। क्योंकि जिनके हाथ ऊपर उठे, उनके पैर इश्क की ज़मीं पर किसी पेड़ की जड़ों की तरह अपना अस्तित्व फैलाते गए…
इसलिए कृष्ण एक व्यक्ति नहीं एक तत्व है… इस तत्व के तत्वाधान में ही यह जीवन चल रहा है और चलता रहेगा… आप सबको कृष्ण तत्व के जन्मोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं…
ध्यान का ज्ञान : इस ज़मीं से आसमां तक मैं ही मैं हूँ, दूसरा कोई नहीं