हरिशंकर परसाई के व्यंग्य : सच्चाई, सहजता और हास्य का संगम

आम इंसान की ज़िंदगी, ज़िंदगी की विषमताएँ, विषमताओं में संतोष और संतोष में छिपी पीड़ा! इन भावों को परसाई की लेखनी ने उत्कृष्ट रूप से गढ़ा है। हरिशंकर परसाई की भाषा में चुटीले व्यंग्य की प्रधानता है। उनके एक -एक शब्द धारदार है। जो सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते प्रतीत होते हैं। आज की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में भी परसाई की रचनाएं प्रभावी रूप से प्रासंगिक हैं।
“कुत्ता ज़ंजीर से बँधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया। मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है। लगता ऐसा ही है। मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बँगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था – इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नजर से देखता।
शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था। मैंने देखा, फाटक पर आकर दो ‘सड़किया’ आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे। वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर यह बँगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कुत्ते को देखने लगते। मेजबान ने कहा, ‘यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।’
मैंने कहा, ‘पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टे और जंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है!” – (एक मध्यमवर्गीय कुत्ता)
सन 1922 में मध्य प्रदेश मे होशंगाबाद बाद जिले के गाँव जमानी नामक गाँव मे हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ। नागपुर विश्व विद्यालय से उन्होंने एम् ए हिंदी की परीक्षा पास की। कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया। इसके बाद उन्होने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने कुछ समय के लिए जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ का प्रकाशन भी किया।
उनकी रचनाओं में कहानी संग्रह हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव, उपन्यास में रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, ज्वाला और जल प्रमुख हैं। हरिशंकर परसाई के कई निबंध संग्रह भी बहुत प्रसिद्ध हुए। जैसे- तब की बात और थी, भूत के पाँव पीछे, बईमानी की परत, पगडण्डियों का जमाना, शिकायत मुझे भी है, सदाचार का ताबीज, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा। व्यंग संग्रह में प्रमुख हैं वैष्णव की फिसलन, तिरछी रेखाएं, ठितुरता हुआ गणतंत्र, विकलांग श्रद्धा का दौर।
प्रेमचंद की ही भांति हरिशंकर परसाई ने भी अभावग्रस्त होते हुए भी लेखन के क्षेत्र में पदार्पण किया। वे भी सर्वहारा वर्ग के शुभचिंतक थे पर बाद में उनका झुकाव वामपंथ की ओर हो गया था जिसका प्रमाण निम्नलिखित पंक्तियों से मिल जाता है –
“पर जहाँ जीवन की परिभाषा मृत्यु को टालते जाना मात्र हो वहां जीवन को नापता हुआ वर्ष पास-पास कदम रखता है। पर जो जीवन की कशमकश में उलझे है जो पसीने की एक-एक बूँद से एक एक दाना कमाते है जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत नहीं है।” – (ज़िंदगी और मौत)
वैसे श्री हरिशंकर परसाई कार्लमार्क्स से भी काफी प्रभावित थे इसलिए परसाई का स्वतंत्र चिंतन समग्र सर्वहारा वर्ग के लिए था और इस देश की सीमाओं को पार करते हुए देश विदेश तक फ़ैल गया। पाई-पाई जोड़कर अपने चिंतन द्वारा श्री परसाई जी द्वारा जो साहित्य रचित किया गया है आज हम उसे परसाई साहित्य के नाम से जानते है और पढ़ते हैं।
22 अगस्त को इस महान लेखक का जन्मदिवस था और 10 अगस्त पुण्यतिथि, उन्हें भावभीना प्रणाम!!
– कल्याणी मंगला गौरी
मेरे साहित्यिक पुरखे तुम्हारी अँगुली का इशारा समझता हूँ और व्यंग्य-मुस्कान भी
प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं. सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं. कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं.
पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं. लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है. तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं.
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है.
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है. सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है. यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है.
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ. क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर उपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा. विचित्र है यह अधूरी मुसकान. यह मुसकान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है!
फोटो ही खिचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिचाते. फोटो न खिचाने से क्या बिगड़ता था. शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे. मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो. मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है.
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते. समझते होते, तो किसी से फोटो खिचाने के लिए जूते माँग लेते. लोग तो माँगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं. और माँगे की मोटर से बारात निकालते हैं. फोटो खिचाने के लिए तो बीवी तक माँग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते. लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे. जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है. अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं. तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे. यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ. तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है. यों उपर से अच्छा दिखता है. अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है. अँगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है. पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी. तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है. मेरी अँगुली ढँकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है. तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता. फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिचाउँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे.
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है. क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है यह?
—क्या होरी का गोदान हो गया?
—क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
—क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया. वही मुसकान मालूम होती है.
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ. कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है. कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था. उसे बड़ा पछतावा हुआ. उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम.’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं. तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो. कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया. कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया.
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे. टीलों से समझौता भी तो हो जाता है. सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है.
तुम समझौता कर नहीं सके. क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी. मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ. तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझता हूँ.
तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं. तुम कह रहे हो—मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो. तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूँ. मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ!
– हरिशंकर परसाई