दिव्यांगना बनी वीरांगना

“दंगल” में एक दृश्य आता है। जब महावीर फौगाट ( आमिर खान) गीता और बबीता को पहलवानी का प्रशिक्षण देना प्रारंभ करते हैं तो गांव में उनकी आलोचना और व्यंग शुरू हो जाता है। कुछ गाँव वाले कहते हैं के महावीर बौरा गया है जो मर्दों के खेल में बेटियों की सफलता चाह रहा है। कुछ गाँव वाले बेटियों के कुश्ती लड़ने पर ही व्यंग करते हैं।
फिर जब गीता फौगाट लड़कों को पछाड़ कर एक के बाद एक दंगल जीतने लगती है तो एक दृश्य में आलोचकों के ही स्वर बदलते दिखाये गये हैं। जो किसी समय महावीर फौगाट पर कटाक्ष कर रहे होते हैं वही उनकी प्रशंसा करते दिखाये गये हैं। वही लोग जो गीता और बबीता फौगाट पर व्यंग कस रहे थे बाद में उनकी प्रशंसा करते दिखाये गये हैं।
महावीर जी और फौगाट बहनों ने केवल मेडल ही नहीं जीते। उन्होंने सदियों से चली आ रही सामाजिक विचारधारा को अपने दम पर परिवर्तित किया है। समाज की मान्यताओं और धारणाओं को पलट के रख दिया है। कभी पुरुष पहलवान होते थे और अखाड़े में एक या दो महिला पहलवान दिखती थी। आज अनुपात बराबर का है।
समाज की विचारधारा को पलटना अपने आप में बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम है।
तस्वीर इटली की मूल निवासी चिआरा बोर्डि की है। 13 वर्ष की उम्र में चिआरा का एक जानलेवा एक्सीडेंट हुआ। बामुश्किल उन्हें बचाया गया परन्तु उनकी क्षत विक्षत लात के आधे हिस्से को काटना पड़ा।
चिआरा विकलांग हो चुकी थी।
एक ओर विकलांगता से हतोत्साहित थी और दूजी ओर समाज ने उन्हें अब एक विकलांग के रूप में देखना शुरू कर दिया था। जगह जगह उपेक्षा झेलती चिआरा अंतर्मन से टूटती जा रही थी। पहले व्हीलचेयर के सहारे चलती रही और बाद में उनके लिये prosthetic leg की व्यवस्था की गई जिससे वह अपने पैरों पर पुनः खड़ी हो गयी। चिआरा के प्रति समाज और उनके दोस्तों का रवैया उदासीन था। अक्सर उनके लँगड़ेपन का मज़ाक बनाया जाता रहा।
चिआरा विकलांगों के प्रति इस सोच को बदलना चाहती थी।
वह साबित करना चाहती थी के उनकी विकलांगता के बावजूद वह विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं।
चिआरा ने “मिस इटली” सुंदरता प्रतियोगीता में भाग लेने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय को ना केवल आलोचना मिली बल्कि उनपर खूब व्यंग कसे गये। परन्तु समाज की सोच और विचारधारा को बदलने का संकल्प ले चुकी चिआरा राउंड दर राउंड आगे बढ़ती रही और अब वह मिस इटली ब्यूटी कॉन्टेस्ट के फाईनल में प्रवेश कर चुकी थी।
फाईनल में चिआरा का आगमन क्या हुआ के अधिकतर आलोचकों के मुँह पर ताला लग गया और उल्टा आलोचना करने वालों की आलोचना होने लगी। 18 साल की इस दिव्यांग लड़की ने पूरे आत्मविश्वास से प्रतियोगिता में भाग लिया और तृतीय स्थान पर रही।
एक समय था जब विकलांगता ने चिआरा को मानसिक रूप से विकलांग कर दिया था। लोगों के ताने और फ़्तबियाँ सुन कर एक समय वह टूट चुकी थी।
खुद को अंधेरे से उजाले की ओर खींच लाई चिआरा आज करोड़ों लोगों की प्रेरणास्त्रोत बन चुकी हैं।
जो आलोचक किसी समय चिआरा (गीता बबीता) पर व्यंग कस रहे थे आज उनकी उपलब्धि पर वाहवाही कर रहे हैं। हर दिव्यांग को चिआरा की उपलब्धि ने नया उत्साह प्रदान किया है।
कई बार इंसान खुद परिवर्तित होते होते समाज की विचारधारा को परिवर्तित कर देता है। चिआरा बोर्डि की हिम्मत और जज़्बे को सलाम।
– रचित सतीजा
आज से ठीक 18 साल पहले यानी 25 सितंबर 2000 का मनहूस दिन था वो मारिसल अपटान के लिए। उस दिन अपने चाचा के साथ वो तब महज़ 11 साल की बच्ची घर से निकली थी पानी लाने को। रास्ते में धारदार हथियार लिए 4-5 लोगों ने उनका रास्ता रोक लिया और उसके चाचा की चाकुओं से गोद-गोद कर निर्मम हत्या कर दी। बच्ची ने देखा कि अरे, ये सब तो उसके पड़ोसी ही थे।
अपनी जान बचाने को वह भागी। तेज़ भागी अपनी जान लगाकर। पर उन गुण्डों से बच न सकी। उनमें से एक ने मारिसल का गला रेत दिया। वह गिर पड़ी। ख़ून बहने लगा। ईश्वर की महिमा, उसकी आँखें खुली तो उसे महसूस हुआ कि अरे, वह तो जीवित है..!!
पर उसे लगा कि जिन लोगों ने उसके चाचा की हत्या की और उसका गला रेत दिया था, वह सब तो उसे वहीं घेरे खड़े हैं। वह चुपचाप मरा होने का नाटक करती, लेटी रही। जबकि काफ़ी ख़ून बह चुका था।
कुछ देर में उसके पड़ोसी उसे भी मरा समझ कर छोड़ कर चले गए। यह देख वह भागी..भागती रही जब तक अपने घर पहुंच कर फिर से गिर न गयी। मारिसल को महसूस हुआ कि उसकी दोनों हथेलियां लटक रही हों जैसे। उसकी चीखें सुन कर उसकी माँ निकल आईं बाहर।
बेटी की यह हालत देख माँ का कलेजा मुंह को आ गया। आननफानन में मारिसल की माँ ने मारिसल को कम्बल में लपेटा ताकि ख़ून और अधिक न बहे और लेकर भागी हॉस्पिटल।
हॉस्पिटल में डॉक्टर्स जुट गए मारिसल को मौत के मुंह से वापस लाने के जद्दोजहद में। लगभग 5 घण्टे तक चले मैराथन ऑपेरशन के बाद मारिसल के लिए देवदूत बन चुके डॉक्टर्स ने उसे बचा लिया। पर डॉक्टर्स को मारिसल की दोनों हथेलियां काट कर अलग करनी पड़ गयी क्योंकि गुण्डों ने उसके दोनों हथेलियों को लगभग काट कर खत्म ही कर दिया था।
हॉस्पिटल का बिल भरने के पैसे नहीं थे मारिसल की माँ के पास। पता चला कि उन्हीं गुण्डों ने तब तक मारिसल के घर को भी पूरी तरह जला कर तहस-नहस कर दिया था। तब दूर के एक दयालु रिश्तेदार ने हॉस्पिटल के बिल के पैसे दिए और उन गुण्डों को क़ानूनी कार्रवाई के पश्चात समुचित सज़ा भी दिलवाई।
कोई और होता तो उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा जाता। पर ग्यारह वर्षीया बच्ची मारिसल तो किसी दूसरी मिट्टी की बनी हुई थी।
नयी ज़िन्दगी मिलने के पश्चात मारिसल ने ख़ुद को फिर से समेटा। बजाए ईश्वर को कोसने के, उसे बचाने के लिए उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि जरूर किसी मिशन हेतु ही ईश्वर ने उसी दूसरी ज़िन्दगी दी है।
मारिसल ने दिव्यांग बच्चों हेतु स्कूल में दाखिला लिया और अपनी पढ़ाई जारी रखी। मारिसल कंप्यूटर में टॉपर साबित हुईं। साथ ही वह स्कूल की सबसे जहीन व सबसे मेहनती छात्रा भी बनी। बचपन से उसे तरह-तरह के व्यंजन बनाने का बहुत शौक था।
आज से दस साल पहले यानी 2008 में उन्होंने होटल एंड रेस्तरां मैनेजमेंट में डिग्री हासिल की तथा वर्ष 2011 में वह शेफ बनी। उनकी काबिलियत के कारण उनके देश फिलीपींस की राजधानी मनीला में पहले होटल मैरियट ने, फिर आगे होटल एडसा शंग्री-ला ने अपने यहाँ उन्हें काम पर रख लिया।
उनके साथी शेफ बताते हैं कि मारिसल केवल गर्म बर्तन चूल्हे से उतारते समय तथा शीशी-बोतल के ढक्कन खोलते समय ही दूसरों की सहायता लेती हैं, बाकी काम ख़ुद ही कर लेती हैं..!!
अभी महज़ 29 वर्ष की मारिसल का जीवन हमें बताता है कि हम लोग जहाँ छोटी-मोटी समस्यायों से दो-चार होने पर ही अवसाद का शिकार हो जाते हैं, वहीं दोनों हथेली नहीं रहने के बावजूद मारिसल आज नामी शेफ हैं, जिसके लिए हथेलियों की कितनी जरूरत पड़ती है, कोई भी सहज़ ही समझ सकता है।
याद रखिये.. ग़र हम सपने देखें, उन्हें पूरा करने हेतु दिन-रात ईमानदारी से सही दिशा में मेहनत करें बिना डरे व बिना थके, तो फिर किसी न किसी मोड़ पर नियति भी अंततः आपकी जीवटता से हार कर आपको रास्ता दे ही देती है, ताकि आप अपने सपनों की मंज़िल को पा सकें।
– कुमार प्रियांक
ईश्वर के दूत : साहित्यकार आबिद सुरती और आईटी प्रोफेशनल विमल चेरांगट्टू