तू किसी और की जागीर है जान ए ग़ज़ल, लोग तूफ़ान उठा देंगे मेरे साथ ना चल

ग़ज़ल सुनना आजकल जैसे बुद्धिजीवी होने का पर्याय होता जा है. कई तो ऐसे मिल जायेंगे जो ठीक से “ग़ज़ल” शब्द का उच्चारण नहीं कर सकते पर ग़ज़ल का शौक़ीन होने का दम्भ भरते नज़र आते हैं. अब ऐसे में समझ कितना आता है ये तो वो ही जानें या ऊपर वाला जाने.
ये भी देखा है कि किसी से पूछो की तुम्हारी पसंदीदा ग़ज़ल कौन सी है, तो आधे से ज़्यादा का जवाब आता है –
“वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी ”
अब महानुभाव को कौन समझाए कि “कागज़ की कश्ती, बारिश का पानी” ग़ज़ल नहीं है, गीत है.
ग़ज़ल के बारे में आम धारणा ये है कि जिसे जगजीत सिंह, ग़ुलाम अली, पंकज उधास, मेहंदी हसन ने गाया है वो ग़ज़ल है, एक और अवधारणा ये भी है कि उर्दू में गाई गयी हर चीज़ ग़ज़ल है.
असल में ग़ज़ल संगीत का नहीं, कविता का प्रकार है. चूँकि ग़ज़ल की बहुत सी खूबियों में से एक खूबी ये भी है कि ये Musically tuned होती है, इसीलिए इसे गाया जा सकता है. ये अलग बात है कि बाद में लोग गायन को ध्यान में रख के ग़ज़ल लिखने लगे.
ग़ज़ल का असल मतलब होता है “महबूब से बात करना.” कविता की इस विधा में प्रायः मुहब्बत, जुदाई, तसव्वुर, आरज़ू के मुद्दे रहते हैं.
ग़ज़ल का उदगम अरबी भाषा से हुआ है. वहाँ कविता की एक विधा बहुत प्रचलित थी जिसका नाम था कसीदा. ग़ज़ल कालांतर में उसी से फूट कर बाहर आई.
पर अहम् सवाल ये है कि ग़ज़ल होती क्या है? उसके पहले चलिए समझते हैं शेर क्या होता है. शेर दो लाइन की कविता को कहते हैं. ये अपने आप में पूर्ण कविता होती है. दोनों लाइनों को मिसरे कहते हैं. पहली लाइन पहला मिसरा, और दूसरी लाइन दूसरा मिसरा. ये दोनो मिसरे अपने आप में पूरे होते हैं. मतलब पहले मिसरे को दूसरे पर रचनात्मक रूप से बिल्कुल ही निर्भर नहीं होना है. अब भावात्मक रूप से तो होना ही है.
ग़ज़ल के पाँच तत्व होते हैं.
1. मतला
ये ग़ज़ल का पहला शेर होता है. इस शेर के दोनों मिसरों मे तुकबंदी रहती है.
उदाहरण-
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
फिर शेरों का एक सिलसिला शुरू होता है. जिनकी लंबाई मतले से बिल्कुल इधर उधर नहीं हो सकती. इन शेरों का पहला मिसरा तुकबंद नहीं होता, लेकिन दूसरा वापस उसी में आ जाता है. ग़ज़ल के सभी मिसरों की लम्बाई पूरी तरह से एक होनी चाहिए.
ये शेर एक दूसरे से ताल्लुक़ रख भी सकते हैं और नहीं भी. अगर रखते हों तो उसे मुसलसल ग़ज़ल कहते हैं और नहीं तो ग़ैर मुसलसल.
उदाहरण-
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
2. रदीफ़
ये शेरों के अंत में दुहराए जानेवाले शब्द होते हैं. ये ज़रूरी नहीं है. शायर चाहे तो लगाए या ना लगाए. उपर दिए गये के शेरों में “उसे” को बार बार दुहराया गया है. इसलिए ये इस ग़ज़ल का रदीफ़ है.
3. क़ाफ़िया
जो शब्द आपस में rhyme करते हों उन्हे हम-क़ाफ़िया शब्द कहते हैं. ग़ज़ल में क़ाफ़िया निहायत ही ज़रूरी है. ऊपर दिए गए शेरों में भुलाऊँ, गुनगुनाऊँ, लगाऊँ, लाऊँ, दिलाऊँ हम-काफ़िया हैं.
4. मक़ता
आमतौर पे ये ग़ज़ल का आखिरी शेर होता है. ग़ज़ल जब पूरी होती है तो शायर उस शेर में अपना कलमी नाम या तख़ल्लुस रख देता है.
हालाँकि हर ग़ज़ल में मक़ता हो ये ज़रूरी नहीं लेकिन एक पर्फेक्ट ग़ज़ल में ये होना चाहिए. उर्दू और अरबी शायरों में मक़ता काफ़ी प्रचलित है.
5. बहर
जिस तरह छंदों में मात्राएँ गिनी जाती है वैसे ही ग़ज़ल को बहर में नाप के लिखते हैं.
बहर को metre कहते हैं. वैसे प्राकृतिक रूप से बहर की थोड़ी समझ सबको होती है, लेकिन बहर एक बहुत ही विस्तृत विषय है और मैं खुद भी इसको ठीक से नहीं समझता हूँ.
पर ग़ज़ल के सन्दर्भ में इतना ज़रूर समझता हूँ कि एक ग़ज़ल में ऊपर से नीचे तक एक ही बहर का प्रयोग होना चाहिए. अर्थात सभी मिसरों में एक बराबर मात्राएँ होनी चाहिए. गायन के लिए बहर का एक होना आवश्यक है.
अब अहमद फ़राज़ साहेब की इस ग़ज़ल को ऊपर लिखी जानकारी में जोड़ कर पढ़िए –
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़’
जैसे दो साए तमन्ना के सराबों में मिलें
– अहमद फ़राज़
मायने
तज़्किरे = वर्णन ( narration )
ज़ूद – आसानी से ( easily )
दार=फाँसी का तख़्ता ( gallows )
निसाब = पाठ्यक्रम (syllabus)
सराब = मृगतृष्णा ( Mirage)
– आशीष निगम