फेसबुक अड्डा : कविताएं गाती तस्वीरें

कुछ कविताएं ज़हन की उन तस्वीरों पर बनती हैं जो हमारे नितांत एकाकीपन की साथी होती हैं, जिनका आपके अपने सिवा कोई राज़दार नहीं होता. कुछ कविताएं उन तस्वीरों पर बनती हैं जिनको देखते से ही लगे किसी ने आपके उस एकाकीपन को सार्वजनिक कर दिया और शब्द अचानक आई बारिश की तरह उन पर बरस पड़ते हैं…
कुछ कविताएं ऐसी होती हैं जिनको पढ़कर लगता है आपके दिल की बात किसी ने सदृश्य आपके सामने प्रस्तुत कर दी हो… कुलदीप वर्मा जब एक कवि के रूप में अवतरित होते हैं तो उनको पढ़ना इश्क़ में डूब जाने जैसा भाव उत्पन्न करता है… लगता है जैसे कवि ने आपके ही दिल की बात कह दी हो… और जब वो किसी विशेष तस्वीर पर लिखते हैं तो तस्वीर के साथ कविता भी आपके सामने रूबरू खड़ी होती हैं…
आइये मिलते हैं उनकी कुछ ऐसी ही सदृश्य कविताओं से –
कुछ यूँ ही
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क्षितिज के
अलग अलग छोर पर
एक दूसरे को देख कर
मुस्कुराए थे।
अपनी अपनी कक्षा में बंधे
अपनी अपनी धुरी पर घूमते
दोनों बहुत समीप से होकर
गुज़रे।
समय के
सूर्य से निकलती
क्षणों की किरणों में नहा,
दोनों ने अपने अपने
अस्तित्व की छाया से
एक दूसरे को छुआ भी।
क़िन्तु कुछ रेखाएं मध्य रही
और दोनों बढ़ गए
अपनी अपनी कक्षा के
वर्तुल में परिक्रमा पथ पर।
कभी कभी दो देह
मन की धुरी से बंधी
दो ग्रहों की तरह
निकट तो आती हैं
किन्तु मिलती नहीं।
परन्तु दोनों में मध्य
रह जाता है कुछ
एक अधूरा संभावित प्रेम
जो कभी मोक्ष नहीं पाता
शायद इसे ही कहा गया हो
प्लेटोनिक लव…
कुछ बारिश
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उन महंगे कपड़ों को
पहन लेना चाहिए
जो खास मौकों के लिए
वार्डरॉब में बंद हैं
या उन पैसों में से
कुछ खर्च कर लेने चाहिए
जो किसी सुख दुख के लिए
रखी जमा पूंजी हैं
कुछ एक ऐब जिनके पीछे
नरक के दरवाज़े छिपे हैं
उन्हें कर के उन से भी
गुज़र जाना चाहिए
नैतिकता और अनैतिकता
की परिभाषाओं को
कुछ पल परे रख कर
शायद नैसर्गिक आह्वान के
पथ पर कुछ पग रख लेने चाहिए
कितना भी टिकाऊ लगे
पर ये जीवन
बरसात सा अनिश्चित है
जब तक बरस रहा है
तब तक बरस रहा है
भीग लो या केवल निहार लो
अपने संकोचो की
कांच की दीवार के इस पार से।
यात्रा
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पग आपके हैं
यात्रा आपकी है
और थकन भी
आपकी ही है
और कोई
आश्वासन नहीं कि
गंतव्य क्षणभंगुर है
या शाश्वत।
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अपने
संशयों और दंभ के
खोल में सुरक्षित
आप और मैं।
निकट, किन्तु
अपरिचित और
एकाकी।
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हमारा अभिनय
कितना भी
कुशल क्यो न हो
किन्तु हम स्वयं को
पूरा छिपा नहीं सकते
कम से कम उनसे
जिन्हें हमारा चेहरा
पढ़ना आता हो।
मैं जानता हूं
कि उन्हें पता है
जो ख्याल
मेरे ज़हन की ख़लिश में है
वो कहीं उनकी
कशमकश में भी है।
हां बेशक
वो मेरे इतने करीब है
कि मैं उन्हें छू भी लूं
तो उन्हें एतराज़ न हो।
पर मेरी आदत है
मैं अपनी तलब को
अपने शऊर के
इख्तियार में रखता हूं।
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क्या मानव मन में
ऐसी संभावनाओं के लिए
पुकार उठने से
विमुख हुआ जा सकता है।
कि जैसे वृक्ष पर
निकल आती हैं नई शाखाएं
और झड़ कर पुराने पत्ते
उग आते हैं नए पत्ते।
यूँ ही जीवन में कहीं
निकल आते नए लोग
और उन पर उग आते
नए सम्बंध भी।
तथाकथित
प्रेम अवश्य ही
मन की वृद्धावस्था है
जब आप
एक ही बिंदु पर
सिमट जाते हैं।
उन्हीं उन्हीं एक सी
बातों की
पुनरावृति के लिए
लालायित भी
और अभ्यस्त भी।
जहां कोई भी परिवर्तन
बेचैन करता है
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अंततः
समस्त आधुनिक कल्पनाओं से परे
साधारण नैसर्गिक स्वभाव के स्त्री पुरूष
खींचते है सतुंलन की एक रेखा
समस्त दैहिक विरोधाभासों के मध्य।
और सम करते हैं ब्रह्मा के गणित की
समस्त विषमताओं के जटिल आंकड़ो को।
तब परिभाषा पाता है
प्रकृति और पुरुष का असाधारण समबंध।
सरल से तो समीकरण हैं।
पुरुष जीव है तो स्त्री काया है
पुरुष ब्रह्म है तो स्त्री माया है
और पुरुष श्रम है तो स्त्री छाया है…
अंततः
समस्त आधुनिक कल्पनाओं से परे
साधारण नैसर्गिक स्वभाव के स्त्री पुरूष
खींचते है सतुंलन की एक रेखा
समस्त दैहिक विरोधाभासों के मध्य।
और सम करते हैं ब्रह्मा के गणित की
समस्त विषमताओं के जटिल आंकड़ो को।
तब परिभाषा पाता है
प्रकृति और पुरुष का असाधारण समबंध।
सरल से तो समीकरण हैं।
पुरुष जीव है तो स्त्री काया है
पुरुष ब्रह्म है तो स्त्री माया है
और पुरुष श्रम है तो स्त्री छाया है…
तुम्हारी
जिज्ञासाएँ रोचक हैं
और मैं निश्चयपूर्वक,
नहीं कह सकता
कि मेरे पास उनके
सही सही समाधान होंगे।
पर मैं
उनके प्रतिउत्तर में
कुछ न कुछ
रोचक कह ही सकता हूँ
ऐसा मेरा विचार है।
तो यदि तुम कहो तो
क्यो ना हम कहीं चलकर
एक बैंच ढूंढ कर
उस पर आराम से बैठें।
निश्चित
सीमाओं के मध्य में।
संभावनाओं
और आशाओं के
कुछ रिक्त स्थान
ढूंढ कर।
थोड़ा
आगे बढ़ आना।
ये भी तो
रिश्ता निभाने का ही
एक प्रयास था।
क्या तुमने
ध्यान दिया कभी।
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– कुलदीप वर्मा
ग्रेट जॉब