चरित्रहीन – 1 : प्रेम, पीड़ा, प्रतीक्षा, परमात्मा

उसे कई बार ऐसा लगता है जैसे वह इस जन्म में जिस किसी से भी मिल रही है, वह पिछले किसी न किसी जन्म का कोई रिश्ता है… यूं तो वह हज़ारों लोगों से मिलती है, लेकिन एक दिन अचानक किसी को देखकर आँखें चमक जाती है. चेतना से कोई लहर उठती है और वह उन लहरों के पीछे प्यासी नदी सी दौड़ पड़ती है….
इतनी प्यास!! किस चीज़ की, क्या उसके जीवन में प्रेम की कमी है?… नहीं…
क्या उसके जीवन में भौतिक सुख की कमी है?… नहीं…
क्या उसके जीवन में सामाजिक सम्मान की कमी है?… नहीं….
क्या उसके जीवन में आध्यात्मिक अनुभवों की कमी है?… नहीं…
फिर क्यों वह ऐसा अनुभव करती है जैसे वह एक प्यासी नदी है… और किसी के आभामंडल से उठती तरंगें उसे सागर का पता देने वाली है?
क्योंकि यह उसकी प्यास नहीं, मुमुक्षा है… एक पीड़ा… एक तड़प.. परमात्मा तक पहुँचने के लिए सीढ़ी है…
किसी व्यक्ति का मिलना, उससे निजता की सीमा के पार संवाद होना, या किसी का पहला स्पर्श, या जिसे हम पहली नज़र का प्रेम कहते हैं वह सब इसलिए होता है क्योंकि हमारी चेतना पिछले जन्म का रिश्ता पहचान लेती है. भौतिक रूप से आप न भी पहचानों, लेकिन कई बार किसी को पहली बार देखकर लगता है अरे इसे तो मैंने पहले भी कहीं देखा है, यहाँ तक की बातें भी की है…
तो वह ऐसे ही लोगों से मिलती है और प्रकृति की योजना में साक्षी भाव से उतर जाती है, होश पूर्वक, यह समझते हुए भी कि सामाजिक दृष्टि से उसे इस बात के लिए अपमानित भी होना पड़ सकता है, लेकिन उस समय उसकी पूरी चेतना उस घटना को अंजाम देने में इतनी व्यस्त हो जाती है कि भाव शून्य सी वह खुद को ही संचालित होते देख रही होती है…
हाँ यह अलग बात है कि भौतिक संसार में पुनः लौटने के बाद जब घटना का विश्लेषण शुरू होता है, तो वह कभी अपमान, तो कभी विरह की प्रसव पीड़ा से गुजरते हुए किसी न किसी सामाजिक संस्कार से मुक्त हो चुकी होती है…
संस्कार का अर्थ हमेशा सकारात्मक ही नहीं होता, कई ऐसी बातें जो समाज के अनुकूल होते हुए भी आपकी आध्यात्मिक यात्रा में अड़चन हो सकती है, तब ऐसे कई जन्मों से लगातार चेतना में पड़ रहे संस्कारों से मुक्त करने के लिए अस्तित्व योजना बनाता है… ऐसा हरेक के साथ होता है, बस उसे देख पाने की क्षमता हासिल करने के लिए दृष्टि को बहुत सूक्ष्म और हृदय को बहुत विशाल रखना पड़ता है…
इसलिए उसके विशाल हृदय में सबके लिए प्रेम है… उसके संपर्क में आने वाला हर रिश्ता उसे चेतना स्तर पर इतना प्रभावित करता है कि अस्तित्व के स्वर्णिम नियमों के लिए वह मिट्टी के सामाजिक नियमों को तोड़ने में भी नहीं हिचकती और आँचल में चरित्रहीनता का दाग लेकर भी वह उन सारे रिश्तों को अपनी कोख में बो देती है…
हाँ कोख में… क्योंकि सामाजिक रूप से रिश्ते को वह किसी भी नाम से पुकार ले… चाहे पुत्र या पुत्री कह ले, मित्र कह ले, भाई, बहन कह ले, पिया या प्रिया कह ले… लेकिन उसके सारे भाव उसकी गर्भनाल से संचालित होते हैं… और वह पूरी की पूरी माँ हो जाती है…
माँ होना उसका स्वभाव ही नहीं नियति और प्रकृति है, जैसे हम नदी को माँ कहते हैं, धरती को माँ कहते हैं… शक्ति को माँ कहते हैं… और उसने खुद को प्रकृति से इतना एकाकार कर लिया है कि उसका निज तत्व माँ भाव से परिपूर्ण हो चुका है….
वह उस नदी की तरह है जिसके घाट पर कोई माँ कहकर आस्था का दिया प्रवाहित करने आता है तो कोई शिव की जटा से धरती पर उतरी गंगा मान स्नान कर अपने पाप से मुक्त होने आता है…
उसका जीवन किसी की भी कल्पना के परे हैं… क्योंकि उसके लिए चरित्र की परिभाषा स्त्री पुरुष के सम्बन्ध तक सीमित नहीं, उसके लिए चरित्र की परिभाषा ब्रह्माण्डीय नियमों से शुरू होकर परमात्मीय कृपा पर ख़त्म होती है… जितना वह जीवन को भोगती जाती है सिर्फ़ उसके लिए चरित्र की परिभाषा उतनी ही विस्तृत होती चली जाती है… तभी वह खुदके लिए यह कहने का दुस्साहस करती है कि वह ईश्वर की ज़िद्दी सरचढ़ी संतान है…
उसके लिए किसी पुरुष का स्पर्श तब तक पवित्र है जब तक वह सिर्फ दैहिक नहीं आत्मीय हो और उसे पिछले जन्म के किसी स्पर्श से मुक्ति दे रहा हो, उसकी आध्यात्मिक यात्रा की योजना का हिस्सा हो… क्योंकि उसके शब्दकोष में पर-पुरुष जैसा कोई शब्द नहीं, क्योंकि उसका भावकोष इतना समृद्ध है कि उसके जीवन में आने वाला हर पुरुष उसकी कोख में बोये बीज का फल हो जाता है, फिर वह पुरुष कोई भी हो, उसका अपना पुत्र, कभी भाई, कभी मित्र, कभी रास्ते में कुछ क्षण के लिए उसकी छाती से चिपका वह बच्चा…. जिसे छूने के बाद उसे लगा था… कि किसी भी जन्म में संपर्क में आया हुआ हर कण अपनी स्मृति बनाए रखता है… आखिर मनुष्य शरीर भी तो उन शक्ति कणों का समुच्चय है… भला वो कैसे भुला देगा स्पर्श… फिर समाज के सारे नियमों और कायदों को ताक पर रखकर दौड़ पड़ती है उन स्पर्श की लहरों के पीछे प्यासी नदी सी… कि उनको दुबारा स्पर्श कर अधूरे वर्तुल को पूरा कर सके और ऐसे एक एक कर सारे स्पर्श से मुक्त हो जाए…
क्योंकि उसके लिए भविष्यवाणी हुई है कि यह उसका अंतिम जन्म है… और इस जन्म में उसे पिछले सारे जन्मों के हिसाब पूरे करना है, चाहे वह हिसाब प्रेम का हो, नफरत का हो, अपमान का हो.. उसे पता है यदि वह किसी से प्रेम पाती है तो वह पिछले अधूरे छूटे प्रेम का पूर्ण होना है और यदि वह किसी से अपमान पाती है तो पिछले किसी जन्म में उसके द्वारा किये गए अपमान का ही हिसाब है… इसलिए वह अपना अपमान भी साक्षी भाव से हँसते हुए स्वीकार करती है. क्योंकि वह जानती है प्रेम और अपमान दोनों का ही स्पर्श परमात्मा द्वारा तय होता है.
वैसे तो उसके जीवन में परमात्मीय स्पर्श की बहुत सारी कहानियाँ है… लेकिन कुछ यहाँ उसी के शब्दों में दो किस्से प्रस्तुत कर रही हूँ – जिसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं.