जीवन का पूर्ण सत्य : आधा है चंद्रमा रात आधी

आसमान का नीला रंग चुराकर, प्रेम की नदी में घोल आने से नदी आसमानी हो जाती है. कामनाएं दुनियावी पैरहन उतारकर नीले रंग को देह पर मलती हैं, और जलपरियों की भांति क्रीड़ा करती हुई चाँद का गोला एक दूसरे पर उछालती हैं…
गीले पानी में सूखे भाव भी, तेज़ी से भागती रात के साथ रतजगा करते हुए पार कर जाते हैं रात में रत सारे पहर को. सुबह स्वागत की सुनहरी चुनरियाँ देती हैं भेंट और कामनाएं सद्यस्नाता सी उसे बदन पर लपेट फिर लौट आती हैं सभ्य समाज के बीच ससम्मान.
लेकिन धरती के धूसर रंग में कोई भी रंग मिला दो धरती का धरतीपना कभी नहीं जाता… धरती का धैर्य और धीमा प्रेम, धूप की धार पर धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए भी पार कर जाता है प्रतीक्षा का वह समय… जहां प्रेम को विरह वरदान रूप में मिलता है… और लांछन को भी वो लाज की लालिमा नहीं बनने देता.
क्योंकि प्रेम केवल कविता में उतरती कलात्मकता नहीं, गीतों में उतरता गायन भी नहीं, प्रेम पीड़ा के पहाड़ पर लहराती पताका है जहां हार और जीत कोई मायने नहीं रखती. जान की बाजी लगा देने वाली जीवन की जिजीविषा, मृत्यु सदृश्य संतापों और यातनाओं को ह्रदय के अंतरतम खंड में नगीनों की भांति जड़कर भी चेतना को जड़ नहीं होने देती. समय की तरलता के साथ वो प्रेम को भी तरल कर देती है.
बस तुम उस तरल प्रेम को सूरज की सात किरणों की तरह जीवन की सात मटकियों में भरकर माथे पर रख लेना और याद करना वह कहानी कि जैसे औरतें माथे पर मटकी लिए, एक दूसरे से बतियाती, बच्चों को कमर पर उठाये रास्ते भर चलती रहती है, मटकी को छूती भी नहीं, फिर भी वह गिरती नहीं, तुम परमात्मा को भी ऐसे ही सर पर मटकी की तरह उठाये जीवन के सारे काम कर लेना…
और ये काम करते हुए लगेगा कि काम अधूरे छूट रहे हैं, लेकिन यह अधूरापन ही तुम्हें परमात्मा की ओर उन्मुख रखेगा, यह जो अधूरेपन की बेचैनी है ना उसे एमी माँ ने बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है कि अधूरे परमात्मा का नाम मनुष्य है और पूरे मनुष्य का नाम ही परमात्मा है.
सारा प्रपंच इस अधूरेपन को पूरा करने का प्रयास मात्र है… जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना, इस अधूरेपन की बेचैनी को बढ़ाने के लिए ही होती है, जिस दिन तुम पूरे हो जाओगे, यात्रा वहीं रुक जाएगी… पूरा तो परमेश्वर ही हो सकता है ना…
इसलिए मुझे हर वो गीत बड़ा आध्यात्मिक लगता है जिसमें अधूरेपन को पूरी शिद्दत से गाया गया हो कि….
आधा है चंद्रमा, रात आधी
रह न जाए तेरी मेरी बात आधी, मुलाक़ात आधी
और सप्त रंगों की मटकी सर पर उठाये पूरे संतुलन को साधे जीवन संकेत देता है कि…
पिया आधी है प्यार की भाषा
आधी रहने दो मन की अभिलाषा
आधे छलके नयन, आधे ढलके नयन
आधी पलकों में भी है बरसात आधी
अधूरेपन से विचलित मन बार-बार प्रश्न करेगा कि…
आस कब तक रहेगी अधूरी
प्यास होगी नहीं क्या ये पूरी
प्यासा-प्यासा पवन प्यासा-प्यासा गगन
प्यासे तारों की भी है बारात आधी
और अपनी स्वाभाविक अटखेलियाँ और पूर्ण अभिनय के साथ जीवन यह कहता हुआ पलटकर निकल जाता है कि यहाँ पूर्ण क्या है जबकि…
सुर आधा ही श्याम ने साधा
रहा राधा का प्यार भी आधा
नैन आधे खिले होंठ आधे हिले
रही मन में मिलन की वो बात आधी
राधा और कृष्ण के रिश्ते का रहस्य आज तक कोई नहीं जान सका, कृष्ण जैसे पूर्ण पुरुष के साथ भी राधा की कहानी अधूरी ही मिल पाती है फिर भी कृष्ण के नाम के पहले राधा का नाम लिया जाता है और इसीलिए कहा जाता है कि कृष्ण को पाना हो तो राधा-राधा पुकारो.
बहुत छोटी थी जब मैंने यह फिल्म देखी थी लेकिन उतनी कम उम्र में भी मेरे मानस पटल पर इस फिल्म ने अद्भुत सन्देश अंकित किया था कि जिसे मन खोज रहा होता है वो तो हमारे भीतर ही होता है, ये तो हमारे मन की माया है जो हमारी आँखों के सामने मरीचिका सदृश्य चित्र अंकित करती है और हम उसे बाहरी दुनिया में खोजने निकल पड़ते हैं…
इस फिल्म की कहानी के अतिरिक्त मुझे सबसे सुन्दर बात लगी है इस गीत में संध्या का नृत्य, पता नहीं नृत्य के जानकार उसे किस पैमाने पर ठीक कहेंगे, लेकिन मुझे सदा से उसकी नृत्य शैली बहुत ही अलग लेकिन अत्यधिक आकर्षक लगी है, उसे इस बात की चिंता नहीं है कि नृत्य की कौन सी मुद्रा वह ठीक से बना पा रही है. वह जब नृत्य करती है तो अपनी मौज में करती है, जैसा उसे करना भाता है…
सर पर सात मटकी उठाये भी वो नृत्य की अपनी विशेष अदा नहीं छोड़ती… बहकते हाथ, लहकते पाँव, ठुमकती कमर…
बस मैं तो इसी अदा पर निहाल हो जाती हूँ और अंदर से हूक उठती है… अहा! जीवन यदि हो तो ऐसा… सात सुरों, सात जन्मों, सात फेरों, सात रंग, सूरज के सात घोड़े, आसमान के सप्तऋषि और जितने भी ये सात के साथ हैं… वे सब उस मटकी में भर आते हैं… जिसे मैं जीवन की मटकियाँ कहती हूँ.. जीवन ऐसा ही सप्तरंगी है, इसे ऐसे ही माथे पर उठाए संतुलन बनाते हुए बस आनंदित रहो…
फिर जब जब जीवन के पास अपनी अधूरी कहानी, अपनी अधूरी प्यास लिए कोई आए तो उसे बताओ… कि यह अधूरापन ही तो वह X-factor है जो तुम्हें पूर्णत्व की प्राप्ति की ओर लिए चला जा रहा है… अब ये तुम पर निर्भर करता है कि तुम पलट के जा रहे जीवन के पीछे अपने अधूरेपन को रोते रहते हो या उस अधूरेपन को पूरा-पूरा जीकर पूर्णत्व को प्राप्त कर लेते हो.
हमारी यात्रा शुरू हुई थी आकर्षण के अतल से
जाकर रुकी थी विस्मरण के वितल तक
और सुतल में सुप्त होकर गुज़ार दिए थे तीन जन्म अकेले…
चौथे जन्म में तकरार के तलातल से आगे बढ़े थे हम
और पांचवे में पहुंचे थे मोह के महातल तक…
छठे में तुम मुझे रसों के रसातल में डुबो ले गए थे
सातवें में मैंने पाताल तक प्रेम का फूल खिला दिया….
मेरा प्रेम गुरुत्वाकर्षण जैसा है
कि अंतरिक्ष में लटके हुए भी जो गिरने नहीं देता..
पैर जमे रहते हैं धरती के सात तलों में
सात जन्मों की यादों की तरह…
आओ सूरज ने खोल दिए हैं सातों घोड़े
कि जिस पर सवार होकर हम ढूंढ लाएं
सात तालों में बंद पड़ी
उस रहस्य की चाभी
जो बता दें
कि पहले जन्म के पहले हम कहाँ थे…..
– माँ जीवन शैफाली
बहुत अच्छा लिखा है आपने हमेशा की तरह