बनारस : एक रहस्यमय आध्यात्मिक प्रेम कहानी

कुछ दिनों पहले फिल्म बनारस का अंत देखा, कुछ आधे एक घंटे की ही फिल्म देखी, कहानी ऐसी कि हर दृश्य पर आंसू निकलते रहे, दो कारणों से। पहला, बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी एक रहस्यमयी प्रेम कथा को फिल्म चालबाज़ के निर्देशक पंकज पराशर ने बिलकुल ही चालबाज़ स्टाइल में बनाकर फुर्सत पा ली थी।
और मैं हर दृश्य के साथ उनको कोसती रही कि उर्मिला, डिम्पल, नसीर और राज बब्बर जैसे मंझे हुए कलाकारों से भी वो अभिनय नहीं निकलवा सके। इस बात की पुष्टि हुई कि कलाकार और कहानी चाहे कितनी ही अच्छी हो निर्देशक में ही कमी हो तो ईश्वर भी उस फिल्म को अच्छा नहीं बना सकता।
एक आध्यात्मिक प्रेम कहानी, प्रेमी और उसके गुरु की अशरीरी मौजूदगी, बेटी से शादी न हो पाए इसलिए हीरो को मरवा देने के बाद माता-पिता का प्रायश्चित… इतना सारा मसाला होने के बावजूद वो फिल्म बाँध कर नहीं रख सकी।
उर्मिला की अदायगी हमेशा सतही ही रही है लेकिन राम गोपाल वर्मा ने फिर भी एक अच्छे जौहरी की तरह हीरे को तराशा और नायाब फ़िल्में दी, डिम्पल की सुन्दरता को डायन नुमा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी।
राज बब्बर और उनके डॉ मित्र आकाश खुराना जो अभिनय के मामले में कहीं भी कमतर नहीं, ऐसे अभिनय कर रहे थे जैसे उनको फिल्म ख़त्म करके कहीं जाने की जल्दी हो। वास्तव में पूरी फिल्म ही जैसे जल्दी में बनाई गयी हो ऐसी लगी। एक के बाद एक सीन और कहानी का तेज़ी से भागना दर्शक को कहानी के साथ जोड़े रखने में सफल नहीं हो पाता।
नसीर जो बिना बोले सिर्फ अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीत सकते हैं, वो बाबाजी की महान भूमिका में भी हार गए।
तकनीकी रूप से मुझे सिनेमेटोग्राफ़ी की कोई समझ नहीं है लेकिन एक दर्शक के रूप में सीन की भव्यता और गहराई की इतनी सी समझ तो है कि बिना बात के हर बात में “ये बनारस है, ये बनारस है” कहने से बनारस का बना बनाया रस भी विलुप्त हो जाता है।
बनारस अपने आप में इतना रहस्यमय है कि ज़रा सा कैमरे का ज्ञान और उसके साथ किये कुछ प्रयोग बिना इस संवाद के भी बहुत कुछ कह जाता… लेकिन अफ़सोस एक सिनेमा अपनी सिनेमेटोग्राफी से भी चूक गया और बनारस के घाट पर अपने प्रेमी की यादों में सराबोर बैठी तारिका भी सेल्फी खिंचवाने के लिए मुद्रा बनाकर बैठी किसी आम लड़की की तरह ही लगी।
बनारस का रस जिसने एक बार चख लिया फिर वो इस संसार का नहीं रह जाता यह तो तय है… एक प्राचीन दुनिया के द्वार उसके लिए खुल जाते हैं… लेकिन इस फिल्म ने कई जिज्ञासुओं के लिए बनारस के द्वार ही बंद कर दिए होंगे…
दूसरी बात जिसकी वजह से मैं लगातार आंसू बहाती रही वो थी इन सारी कमियों के बावजूद चल रही रहस्यमयी आध्यात्मिक प्रेम कहानी…
प्रेम को समर्पित लड़की श्वेताम्बरी (उर्मिला) का नाम ही इतना मोहक है कि सोहम (अश्मित पटेल) का शिवोहम हो जाना सार्थक अनुभव होता है। हालांकि यहाँ जातिगत अंतर को मुख्य मुद्दा बनाया गया लेकिन वो फिल्म की कहानी को नहीं भुना सका।
प्रेम करनेवाले दो प्रेमी प्रेम में इतने सरल हो जाते हैं कि दो हज़ार वर्ष पहले मृत्यु को प्राप्त बाबाजी (नसीर) उनके प्रेम के साक्षी बनते हैं और सोहम की मृत्यु के पश्चात् भी श्वेताम्बरी को अशरीरी रूप में उपलब्ध रहते हैं।
इन सारी घटनाओं से गुज़रते हुए श्वेताम्बरी अध्यात्म के नए आयामों को छूती है और एक आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में प्रसिद्धि पाती है। कहानी मेरे दिल के बहुत करीब रही लेकिन लगा इस सुन्दर कहानी पर कोई और निर्देशक फिल्म बनाता जो वास्तविक रूप से आध्यात्मिक होता, तो इस फिल्म को सफल होने में कोई नहीं रोक सकता था।
एक सफल प्रेम कहानी पर बनी असफल फिल्म पर मैं लिख रही हूँ क्योंकि मैंने अक्सर अपने आसपास ऐसी कई असफल कहानियां देखी हैं… जिनको लोग चालबाज़ स्टाइल में भुनाकर आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन मैंने अपने आसपास ऐसे मुट्ठी भर लोग भी देखे हैं जो अपने प्रेम को परमात्मा समक्ष रखकर उन ऊंचाइयों को छू पाए हैं, जिनकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते…
जब प्रेम ईश्वर की तरफ से अवतरित होता है तो वास्तविक मिलन इसमें कोई मायने नहीं रखता। आप बस उसे याद करो और वो अशरीरी रूप में आपके सामने प्रस्तुत होगा।
बस इतना ही कहना था…
– माँ जीवन शैफाली