ज्योतिषाचार्य राहुल सिंह राठौड़ : तुच्छ सुखों की कामना में न गंवाएं, अनमोल है मनुष्य जन्म

आप की अदालत में रजत शर्मा जी ने मनोज तिवारी जी से सवाल पूछ लिया कि आप हमेशा अपना रोल बदल लेते हैं. आप कभी क्रिकेटर बनने के लिए लगे, कभी फिजिकल एजुकेशन के टीचर बनना चाहते थे, बाद में गायक बनें, फिर अभिनेता बनें और अब आप भाजपा के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष बन गये हैं. इस पर मनोज तिवारी जी ने गोस्वामी तुलसीदास जी की आधी-अधूरी चौपाई सुनाई, जिसका भाव था कि बड़े भाग्य से ये मानव का तन मिला है, इसका उपयोग करते हुए जो मन में इच्छा हो वो सब काम कर लेना चाहिए.
ये विचार तुलसीदास जी के चौपाई के साथ घोर अपराध है. इसमें मनोज तिवारी जी का कोई कसूर नहीं है. वो वही बोल रहे हैं जो हम सभी को बचपन से हमारे घरों में सिखाया जाता है. पिता जी, दादा जी, गुरूजन हमें यही तो सिखाते हैं कि एक दिन तुम्हें बहुत बड़ा आदमी बनना है, दुनिया में अपना नाम रौशन करना है. और इस बात के मोटिवेशन के लिए तुलसी बाबा के इस चौपाई का भरपूर प्रयोग किया जाता है.
आइये अब तुलसी बाबा क्या कहना चाहते थें हम पहले उसको समझें. तुलसीदास जी की पूरी चौपाई है – “बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थन्हि गावा।। साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाई न जेहिं परलोक सँवारा।।” इसका भावार्थ है कि मनुष्य जीवन बहुत भाग्य से मिला है. यह देवताओं को भी दुर्लभ है, इसलिए वो भी मानव शरीर प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं. यह मोक्ष का द्वार है क्योंकि हम साधना करके मुक्ति तक की यात्रा मानव योनि में ही कर सकते हैं. अगर ऐसा दुर्लभ मानव जन्म पाकर भी जीव अपना परलोक नहीं सुधारता है तो उसका ये दिव्य जन्म व्यर्थ हो जायेगा.
अब आप खुद समझ सकते हैं कि हमने तुलसी बाबा के इस अनुपम भक्तिप्रधान चौपाई को इहलोकवादी बनाकर कितना अन्याय किया है. तुलसीदास जी यही तो समझाना चाह रहे हैं कि संसार की बड़ी से बड़ी उपलब्धि में कोई सार नहीं है. मानव जीवन को इन व्यर्थ के कंकड़-पत्थरों को इकट्ठा करने में नष्ट नहीं करना चाहिए.
नरेन्द्र मोदी जी के बारे में ऐसा कहा जाता है कि पाँच हजार साल पहले द्वापर युग में उन्होंने भगवान श्री कृष्ण की तपस्या की थी. भगवान ने जब दर्शन दिया तो इन्होंने राजा बनने की कामना प्रगट की. उसी तप के प्रभाव से वे आज भारत के प्रधानमंत्री हैं. उनके उस तप और एषणा को मूर्तरूप लेने में पाँच हजार साल लग गये.
हमारे लिए वो बहुत काम के व्यक्ति हैं पर एक जीव की दृष्टि से देखिए तो ये कोई बहुत अच्छी बात नहीं है कि जब साक्षात नारायण धरा पर लीला करने अवतरित हुए हों और पापी से पापी उनकी भक्ति कर वैकुण्ठ लोक में गति कर रहा हो, उस समय भी एक जीव को नारायण की भक्ति नहीं, राज्य प्राप्ति की कामना जाग गयी.
और उस एक कामना के कारण अभी तक उस जीव के पाँच हजार साल नष्ट हो गये. इस जन्म में सत्ता के शीर्ष पर पहुँचने और वहाँ खुद को टिकाए रखने के लिए ऐसे अनेकों घोर कर्म करने पड़ेंगे कि फिर अगला दस हजार साल उसका हिसाब चुकाते-चुकाते बीत जायेगा. इसीलिए अष्टावक्र गीता में अष्टावक्र जी कहते हैं कि विषयों को विष की तरह त्याग दो. ये सब शब्द कितने छोटे लगते हैं पर इनके पीछे कितने गहरे राज छिपे हैं. सबसे अधिक धनभागी वह स्थितप्रज्ञ है जिसके मन में कोई कामना नहीं है. ये छोटी-छोटी कामनाएं अनन्त जन्मों के लिए उलझा देती हैं.
हम किसी के व्यक्तित्व से प्रभावित हों या ना हों पर जो भी कहीं ऊँचाई पर है वो सभी कभी पुण्यात्मा रहे हैं, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी जी हों, जवाहर लाल नेहरू हों, इन्दिरा गांधी हों, जॉर्ज बुश हों, बराक ओबामा हों या पुतिन हों. ये सभी अपने पूर्व जन्म के विशाल पुण्य-पुंज के प्रभाव से इतने प्रभावशाली रहे हैं. मात्र एक जन्म के किसी भी पुरुषार्थ से ऐसी विपुल यश-कीर्ति नहीं प्राप्त की जा सकती. ये सभी पूर्व जन्म के पुण्य-पुंज के प्रभाव से इस जन्म में कुण्डली में बड़े-बड़े राजयोग लेकर पैदा होते हैं. इन राजयोगों के कारण स्वयं नियति इनकी तरफ से बैटिंग करने लगता है और ये सबको धकिया के शीर्ष पर चले जाते हैं. अगर पुरुषार्थ से ही सब मिलना होता तो एक किसान से अधिक पुरुषार्थ कोई नहीं करता.
देवरहा बाबा इस ईश्वरीय लीला से परिचित थे. उनको हमेशा गरीबों के साथ अमीर लोग भी घेरे रहते थे. इस पर कुछ लोगों ने आपत्ति जताई तो देवरहा बाबा ने बेझिझक कह दिया कि जिसे ईश्वर ने बड़ा बनाकर धरती पर भेज दिया है, उसे भला मैं कैसे छोटा बना दूँ. उनके इस कथन को विवादित बयान कहकर प्रचारित किया गया. पर मेरी दृष्टि में इसमें कुछ भी विवादित नहीं है. हम सभी अपने बच्चों को राजा व धनवान बनाना चाहते हैं और जिसे भगवान ने राजा और धनवान बना कर भेजा है उसकी निंदा करते हैं. ये हमारे व्यक्तित्व का दोहरापन है.
जिसके पास भी श्री है, विभूति है, ऐश्वर्य है वो ईश्वर का ही रूप है. इसे वही प्राप्त कर सकता है जिसने कभी किसी जन्म में कठोर तपस्या की हो. इसलिए यह निंदनीय नहीं है. लेकिन उस जीव ने जिसने इतनी कठोर तपस्या की है, अगर वासना मुक्त होता तो कहाँ कैवल्य का अधिकारी बन जाता, वो सिर्फ वासना के कारण मात्र बीस-पचीस साल राजा का जीवन जीता है और उसका पुण्य नष्ट हो जाता है, अन्ततोगत्वा वो माया द्वारा ठग लिया जाता है.
हम सभी कभी न कभी ये सब सुख भोग चुके हैं पर हमें इसकी स्मृति न होने के कारण और हर जन्म में नये सिरे से जिन्दगी की शुरुआत होने के कारण, सांसारिक सुखों का प्रबल आकर्षण हमें अपनी ओर खिंचने लगता है. शास्त्र में एक बहुत सुन्दर कथा है. एक बार देवराज इन्द्र अपने हाथी पर बैठकर विचरण कर रहे थे, तभी देवगुरू बृहस्पति वहाँ आये और उन्होंने इन्द्र को एक फूलों की माला भेंट की. इन्द्र ने सत्ता के मद में अपने गुरू का अपमान करते हुए वो माला अपने प्रिय हाथी ऐरावत के सूँड़ में पहना दिया, हाथी उसे अपने पैरों से कुचलता हुआ आगे निकल गया.
एक दिन देवराज इन्द्र किसी काम से गुरू बृहस्पति से मिलने आये. उस समय बृहस्पति एक पेड़ के नीचे खड़े होकर पेड़ पर चलने वाले कीड़ों को संबोधित कर बोल रहे थे कि अरे तुम तीन बार… अच्छा तुम सात बार… अच्छा तुम भी दो बार… अच्छा तुम चार बार इत्यादि. ये देखकर इन्द्र ने बृहस्पति से पूछा कि आप इन तुच्छ कीड़ों से क्या संवाद कर रहे हैं? तब बृहस्पति ने बताया कि मैं गिन रहा था कि इनमें से कौन सा कीड़ा पूर्व में कितनी बार इन्द्र बन चुका है और आज कीड़े की तुच्छ योनि में यातना पा रहा है. ये सुनकर इन्द्र के होश उड़ गये और उसका अभिमान तिरोहित हो गया. इन्द्र एक पदवी है जिस को कोई भी तप करके प्राप्त कर सकता है और तप का पुण्य समाप्त होने पर उसे पदच्युत होना पड़ता है.
ये सब सुख कितना क्षणभंगुर है. मानव जीवन पा कर भी इन तुच्छ सुखों की कामना महामूढ़ता है. हमारी जरा-जरा सी चूक के ही कारण हम सृष्टि के आरम्भ से अभी तक यहीं फंसे हुए हैं. एकमात्र निर्वाण प्राप्ति ही इस जीवन का परम ध्येय है. लक्ष्य इतना बड़ा है और इसे प्राप्त करने के लिए समय कितना कम मिलता है. एक सामान्य मनुष्य को अगर ठीक-ठाक बचे रह गया तो भी मात्र साठ-सत्तर साल का छोटा सा जीवन मिलता है, कुछ बेचारों को तो इतनी उम्र भी नसीब नहीं होती. इसी में हमें संसार के प्रबल आकर्षण अपनी ओर खींच रहे हैं. हमारी सारी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं, इसलिए विषयों की तरफ फिसलन स्वाभाविक है. एक-एक क्षण कितना कीमती है, जिसे हम कौड़ी के मोल लुटा रहे हैं.
एक बार जब हम मरते हैं तो पहले तो ये गारंटी नहीं है कि अगला मनुष्य का ही जन्म मिलेगा. अगर अगला मनुष्य का जन्म मिलेगा भी तो कितने वर्षों बाद मिलेगा, ये भी निश्चित नहीं है. हमारी दुनिया में टाइम और स्पेस की धारणा है, जीवन के उस पार ये नियम नहीं चलता. वहाँ का क्षणभर हमारे इस जीवन के हजारों साल के बराबर हो सकता है. जे. कृष्णमूर्ति बचपन से ही विलक्षण थे. एनी बेसेंट और कृष्णमूर्ति में माँ- बेटे जैसा घनिष्ठ संबंध था. एनी बेसेंट उस समय वाराणसी में रह रही थीं और कृष्णमूर्ति दक्षिण भारत में. दोनों पत्र व्यवहार करते हुए अपने आध्यात्मिक अनुभव शेयर करते थे.
मात्र बारह साल के कृष्णमूर्ति जो इस जन्म में उस उम्र तक दक्षिण भारत से उत्तर भारत नहीं आये थे, एक दिन पत्र में लिखते हैं कि माँ मुझे सारनाथ जाना है, वो जगह जहाँ स्तंभ है मुझे पिछले जन्म से ही बहुत पसंद है. मैं इस जन्म में भी वहाँ जाना चाहता हूँ. उस जगह को देखे 1,250 वर्ष बीत गये. इसका मतलब है कि इनका पिछला जन्म एक हजार दो सौ पचास साल पहले हुआ था. ये लगभग गुप्त काल में पैदा हुए उसके बाद सीधे आधुनिक समय में जन्म लिया. इस बीच, इतने लम्बे मुस्लिमों के शासन काल में वे एक बार भी पैदा नहीं हुये.
आप समझ पा रहे हैं ये कितनी खतरनाक बात है. अगर हम ये जन्म चूक जाते हैं तो हो सकता है हजार साल बाद जन्म लें और तब तक पूरे देश का इस्लामीकरण या ईसाईकरण हो गया हो या चाइना का साम्यवाद आ गया हो. ऐसे माहौल में ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना तो दूर की बात है, ये भी हो सकता है कि ब्रह्मज्ञान आखिर है किस चिड़िया का नाम, लोगों को ये भी न पता हो. इसलिए यह जीवन हम जितना सोच नहीं सकते, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है. सम्पूर्ण संसार की गति बहिर्मुखी है और परमात्मा भीतर है. हमारी पूरी जिन्दगी की दौड़ ही उल्टी दिशा में है, इसलिए हम जितना अधिक छटपटा कर दौड़ रहे हैं, लक्ष्य से उतनी ही दूर जा रहे हैं.
भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं कि संसारी लोगों के लिए जो दिन के समान है वो एक योगी के लिए रात है और संसारी लोग जिस मोह निशा में सोते हैं उसमें योगी जागता है. जड़ भरत ये बात समझ गये थे, इस कारण जड़ बनकर चुप बैठे रहते थे. यही कारण है कि एक मुमुक्षु परमात्मा से संसार का तुच्छ वैभव नहीं माँगता, बल्कि वह ईश्वर से प्रज्ञा व ऋतंभरा की कामना करता है जिससे उसका नित्यानित्य विवेक जाग सके और अपनी जिस माया को पार पाना भगवान श्री कृष्ण स्वयं दुष्कर बता रहे हैं, वह उस दुरत्यया माया का अतिक्रमण कर सके.
- राहुल सिंह राठौड़
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