‘जीवन’ काँटा या फूल मुझे तय करने दो : झमक घिमिरे, जैसे झमकती नदी की उन्मुक्त हंसी

बच्चा जब माँ के पेट में होता है वो तभी से माँ की भाषा समझने लगता है… क्योंकि प्रकृति का नियम है कि संवेदनाएं बाहर से अन्दर की ओर प्रवाहित होती हैं… लेकिन काश माँ इस प्रवाह के नियम के विपरीत जाकर गर्भ में पल रहे बच्चे की भी भाषा समझ पाती तो वो बता पाती कि माँ तुम अपने गर्भ में फूल नहीं काँटा पाल रही हो…
शायद उसके जन्म होने तक भी माँ ने उसे कोमल फूल की भांति ही रखा होगा… लेकिन जैसे जैसे उस पर कांटे निकलने लगे तो वो सभी के आँखों की किरकिरी होने लगी… लड़की को मात्र एक जिम्मेदारी समझने वाले समाज में जब किसी गरीब के घर में ऐसी लड़की जन्म ले ले, जिसे उनको जीवन भर कांटे की तरह ही पालना हो तो शायद उसकी परवरिश ऐसे ही होती होगी जैसी इस लड़की की हुई…
एक लड़की जो कभी अपने पैरों पर खड़ी न हो सकी, भगवान ने जुबान तो दी लेकिन ऐसी जैसे उसे पूरे समाज का श्राप लग गया हो… कि लड़कियों को ज्यादा बोलना नहीं चाहिए, ज़ोर से हंसना नहीं चाहिए, फूहड़ों की तरह खाना नहीं चाहिए…
और उस लड़की ने उन सारे श्रापों को अपने शरीर पर उठाए हुए भी अपने लड़की होने के गौरव को पूरी शिद्दत से बनाए रखा… और जब आपका आत्मविश्वास किसी पहाड़ जैसा ऊंचा हो तो उससे उतरने वाली नदी की मजबूत लहरें ही बिजली बना पाती है.
ऐसी ही एक उन्मुक्त नदी ने जब माँ की कोख को धमक देकर जन्म लिया तो माँ ने नाम रखा झमक… और वो झमकती नदी ने चट्टानों जैसी यातनाओं को चीरते हुए भी अपनी राह बना ली….
नेपाल कचिडे, धनकुटा 1980 में जन्मी सेरिब्रल पैल्सि रोग से पीड़ित झमक कुमारी घिमेरे. गरीब घर में सामान्य लड़कियां ही बड़ी मुश्किल से पढ़ पाती है ऐसे में आड़े तिरछे अंगों वाली ‘मुर्कुट्टा’ (भूत-प्रेत का एक रुप) को कौन पढ़ाता.
तो अपने पैर की तीन ऊंगलियों से जब उसने सबसे पहला अक्षर ज़मीन पर बनाया तो घर वाले समझ नहीं पाए कि लिखने के प्रयास में उसके पैरों से निकले खून का रंग ही उसके आत्मविश्वास जितना गाढ़ा है या उस काले माथे की अलच्छिनि (राक्षसी) लड़की ने जो कोयला अपने पैरों की ऊंगलियों में फंसाया है वो लहू में मिल गया है…
कोयले से ज़मीन पर लिखकर गरीब के घर और क़र्ज़ चढ़ाएगी सोचकर उसकी पिटाई हुई, लहू से आँगन गन्दा किया तो पिटाई हुई, जब तक दादी ज़िंदा थी अपने हाथों से खिलाती रही.. पांच साल की उम्र में जब दादी छोड़कर चल बसी तो अपने पैरों से खाना खाने की वजह से मचाई गन्दगी के कारण उसकी पिटाई हुई, शौच कोई धोता नहीं था तो उसी में लोट-पोट होती पड़ी रहती…
झमकती नदी बड़ी हो रही थी… बच्ची से किशोरी हो रही थी… फटे कपड़ों से झांकते यौनांगों पर स्कूल जाने वाला शिक्षित समाज कंकर मारता था.. लेकिन उन सारी यातनाओं के बावजूद उसने हार नहीं मानी… हाथ के काम पैरों से लेती रही… घर में भाई-बहनों को देखकर – सुनकर पढ़ना लिखना सीखा और ऐसा सीखा कि झमक घिमेरे को 2011 में नेपाल का प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार मदन पुरस्कार, जो भारत के ज्ञानपीठ के समान है, मिला.
आज भी कान्तिपुर दैनिक और ब्लास्ट टाइम्स पत्रिका में नियमित स्तम्भ छपते हैं. झमक को प्रबल गोरखा दक्षिण बाहु चौथी लगायत दर्जनों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए हैं.
संकल्प, आफ्नै चिता अग्निशिखातिर, मान्छे भित्रका योद्धाहरू, सम्झनाका बाछिट्टाहरू, झमक घिमिरेका कविताहरू, जीवन काँडा कि फूल, अवसान पछिको, आगमन, क्वाँटी सङ्ग्रह… ये झमक के झमकते लेखन का बिजली नुमा उत्पाद है… जिससे आज न जाने ऐसी कितनी ही झमक के लिए प्रेरणा स्त्रोत है…
झमक, तुम्हारे कारण ही आज स्त्री जाति की आँखों में चमक है… आज तुमने साबित कर दिया लड़कियाँ सिर्फ और सिर्फ फूल ही होती हैं, चाहे समाज कितने ही कांटे चुभाता रहे, उसकी सुगंध और सुन्दरता से ही प्रकृति में सौन्दर्य बरकरार है.
“जीवन” काँटा या फूल हमें तय करने दो…
- माँ जीवन शैफाली
निशब्द , शाबाश झमक
??????
शैफाली , बधाई
🙂