एक थी अमृता : मेरी सेज हाज़िर है, पर जूते-कमीज़ की तरह तू अपना बदन भी उतार दे

आत्ममिलन
मेरी सेज हाज़िर है
पर जूते और कमीज़ की तरह
तू अपना बदन भी उतार दे
उधर मूढ़े पर रख दे
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज़ है……
एमी माँ का एक-एक शब्द उनके अनुभवों और अनुभूति की यात्रा है. उस स्तर पर जाकर समझ पाना तो मुमकिन नहीं, जिस स्तर पर जाकर उन्होंने लिखा है, लेकिन जितनी मेरी अनुभूति उनसे एकाकार हो पाती है वो कहती हैं- प्रेम का विरह और पीड़ा हो जाना कुछ लोगों की नियति होती है. यदि उन्हें अपने संभावित प्रेमी मिल भी जाते तब भी वे उतनी ही अकेली होतीं. तब वो किसी अन्य अप्राप्य के विरह में लिख रही होतीं क्योंकि उन्हें उस तरह से लिखा जाने के लिए ही चुना गया था.
चाहे रेखा हो या अमृता प्रीतम उनके प्रेम में जो गहन वेदना है, विरह की पीड़ा है, वह उनकी अपनी आत्मा के रंग हैं, कारण बाहरी हो सकते हैं, ये न होता तो कोई दूसरा ग़म होना था की तर्ज़ पर…
तो सौभाग्यशाली वो व्यक्ति हैं जो इनकी इस रचनात्मकता के कारण बने. आप किसी की रचनात्मक यात्रा के लिए रास्ता बने तो रास्ते को भी श्रेय जाना चाहिए, लेकिन आप न होते यकीनन कोई और होता… उनकी मंज़िल नहीं बदलती, बस रास्ता बदला हुआ होता..
इस भावभूमि पर उतरकर जब एमी कहती हैं कि –
कोई खास बात नहीं
बस अपने अपने देश का रिवाज़ है……
तो यकीन मानिए मुझे ऐसे ही देश में रहने की इच्छा हो आती है जहां इतने प्यारे रिवाज़ हो… जहां देह क्या है, बस जूते और कपड़ों की तरह पैरहन…. बात तो आत्म-मिलन की है वो तो मेरा मुझसे कब का हो चुका… तू भी आकर मिल जाएगा तो प्रेम का विस्तार ही होगा… लेकिन और कोई बड़ा परिवर्तन बाहरी रूप से न दिखेगा…
ऐसे में कोई कबीरा या फकीरा, कोई साधु या इश्क़ में बर्बाद आशिक़ अपनी ही मस्ती में गाता हुआ निकल जाए कि प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाय, तो समझना एमी अपनी वही बात दोहरा रही हैं कि ‘आशिक और दरवेश मन की एक ही अवस्था का नाम है’…
जो कुछ भी बाहर दिखाई दे रहा है यकीनन वह माया है, और माया सिर्फ आंखों का धोखा है. माया को तो टूटना ही होता है, जो होकर भी कहीं नहीं होता, वो उसी माया की तरह खिलखिलाते हुए विलुप्त हो जाता है, लेकिन प्रेम में डूबा इंसान माया के टूटने के बाद वहीं खड़ा नहीं रह जाता. प्रेम को सीढ़ी बनाकर वह नए पायदान पर पहुंच जाता है.
अमृता का लेखन हो या रेखा का अभिनय, यह वही पायदान है, उन दोनों के सामने रची गई माया एक एक करके टूटती गई. एक नहीं, कई नाम जुड़े, लेकिन जो सदैव अप्राप्य रह जाना था उसे कलम बनाकर एमी ने कई प्रेमग्रंथ रच डाले, तो रेखा ने अभिनय के कई नए आयाम छुए..
वर्ना जीवन की ढलती शाम में ही सही एमी को तो उसकी उम्मीद से अधिक प्रेम और समर्पण मिला, लेकिन एमी ने खुद कहा है –
मेरी नज़र में
अधूरे खुदा का नाम इंसान है….
और पूरे इंसान का नाम खुदा है….
जो कुछ भी गलत है, वह इसलिए है
कि उसके लिए बहुत जगह है… अधूरेपन में.
पूरे में उसके लिए जगह नहीं है…
इसीलिए इंसान खुदा से दुआ माँगता है….
एक अधूरेपन पूरा होने की दुआ माँगता है….
और यही रिश्ता है- इंसान और खुदा के बीच
एक दुआ का रिश्ता….
एमी की लेखन यात्रा उसी अधूरेपन को पूरा करने का प्रयास थी, जिसे उसने पूरा पूरा जिया, उसका आनंद लिया, उसका फल भी पाया. प्रेम को पा लेना ही यदि पूर्णता है तो मैं पूरे विश्वास के साथ यह कह सकती हूँ कि खुद अपूर्ण रहकर वह कइयों के जीवन के लिए अमृत बन गयी… और यही उसकी सार्थक पूर्णता है.
– माँ जीवन शैफाली