फेसबुक अड्डा : शून्य का संगीत

प्रेम करते-करते हम चुपके से उसे रोप देते हैं बातों में, आदतों में, फिर हर बात में प्रेम उगता है.. – शून्य
आभा-सी दुनिया में कुछ जगहें ऐसी होती हैं जहाँ शब्द से पहले वहां की तस्वीरें बोल पड़ती हैं… जैसे किसी गीत के बोल शुरू होने से पहले का संगीत… गौतम योगेन्द्र की फेसबुक वाल मुझे ऐसी ही दिखाई दी… बल्कि सुनाई दी कहना अधिक उचित होगा… अपने नाम ही की तरह उनकी कविताएं शून्य का संगीत है… जहाँ आप अपनी भावनाओं को बेझिझक नृत्य करता हुआ पाते हैं…
उनकी अधिकतर कविताएं अँधेरे से प्रकट होती नज़र आएंगी… लेकिन अपने प्रकटन के साथ ही वो आपके अंतस के अँधेरे को भी उजागर कर देगी… अँधेरे की यात्रा बड़ी निर्मम होती है… लेकिन जो अँधेरे के इस शून्य पर सवार होना जानता है वो प्रकाश तक की अपनी यात्रा अवश्य पूरी करता है… गौतम योगेन्द्र को इन्हीं शुभकामनाओं के साथ उनकी कुछ रचनाएं साझा कर रही हूँ..
– माँ जीवन शैफाली
अन्तिम वृक्ष की नमी
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मैंने पानी में हाथ फिराया
और मेरी रेखाएँ घुल गईं, वहीं पानी में ही
तभी अचानक सामने उतरते सूरज की छाती में एक खोह सी खुली
और मैं उसमें खिंचता गया
मेरे साथ के सभी लोग मुझसे छूटते जा रहे थे
मेरा भाई, मेरा परिवार, मित्र-सम्बन्धी,
अपनी बेटी को कुल्फ़ी दिलाती स्त्री,
बेंच पर बैठा अपने किसी परिचित से बात करता अजनबी,
हाँक लगाकर सौदा बेचता ठेली वाला.. सब !
किनारे का पेड़, धरती का कोई आखिरी पेड़ होकर मुझसे छूट गया..
मैं उसे नहीं जानता था, पर वो जानता था मुझे..
मेरे जन्म के पूर्व का ही मुझसे उसका परिचय था;
तभी तो, मेरे जाने पर उसने पीछे से आवाज़ नहीं दी..
(कभी-कभी जाने देना भी रोक लेना होता है)
मैं एक खोह में खिंचता जा रहा था,
मैं केंचुली की तरह सतह को छोड़ रहा था और एक सुप्तावस्था में जा रहा था..
इस अवस्था में भी मैं वो सब बचा लेना चाहता था, मेरे पास जो भी था (या नहीं भी था) –
मैं बचाना चाहता था अपने भाई को, अपने परिवार को, उस कुल्फ़ी वाले को, कि
किसी स्वाद की स्मृति में बची रहे किनारे खड़ी लड़की की माँ से की गई इच्छा,
बेंच पर बैठे व्यक्ति के दूसरी ओर के आदमी को किये गये वादे,
ठेली वाले की आवाज़, जिससे वो बुला सके जाते हुए किसी को भी वापस, (बिना बताये) ये जताकर कि उसके पास कुछ महत्त्वपूर्ण है जो जाते हुए को चाहिए हो सकता है..
मैं बचा लेना चाहता था कुछ फूल जो प्रेयसी को दिये जाने से रह गये, कुछ कदम जो हमने साथ चले ही नहीं,
मैं बचाना चाहता था, उसके जाने के बाद उसकी परछाई भर अँधेरा..
मैं बचा लेना चाहता था वो नाम जो मैं अपनी पुत्री के जन्म पर उसे दूँगा..
उन विचारों को बचाना चाहता था, जिनका किया जाना अभी शेष है..
प्रकाश की उस खोह में घुल जाने से पहले मैं बचा लेना चाहता था किनारे खड़ा आखिरी पेड़, हवा के वेग से छूटता उसका सूखा पत्ता और उसकी जड़ में बची ज़रा सी नमी..
मैं बचा लेना चाहता था उस नमी के गीलेपन में खुदको
बिना इस उम्मीद के, कि अनपेक्षाओं में बचे रह जाना भी कितना महत्त्वपूर्ण होता है..
विस्तार
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मैंने एक शोकगीत लिखा
और
प्रवाह दिया चलती धारा में..
आकाश की ओर देखते हुए, धीमे से कहा-विदा
और
उड़ती चिड़ियों को देखकर मुस्कुरा दिया।
बारिश में भीगते हुए मैंने महसूस की पीड़ा
और
उसे भीगते फूलों में बाँट दी।
मेरे एकाकीपन का विस्तार गगन से कम न था- जो था वो सबने बराबर बाँट लिया!
सुबह सवेरे
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दिन की पहली किरण तुम्हारे चेहरे पर पड़ती देखता हूँ तो देखता हूँ- दुनिया;
तुम्हारी रँगत में घुलते हुए..
तुम्हारे लहरते बाल होते हैं किसी बारहमासी नदी का वेग,
आँखें जैसे भोर का चमकता तारा होती हैं
और
प्रार्थना में जुड़ते दोनों हाथ कोई सीप, मोती सहेजकर नींद में ढलती हुई..
शिवरात्रि
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वह नहीं जानती थी
जहाँ वह जा रही है
वहाँ उसकी स्वीकार्यता होगी,
या अनसुनी कर दी जायेगी उसकी पुकार,
समय का चक्र चूक जायेगा अबके
उसकी बारी में,
अनदेखे रह जायेंगे उसके घाव,
युगों का बन्धन धरा रह जायेगा..
बस एक अधूरापन था जो
उसे अपनी तरफ महसूस होता था,
लगता कोई है जिस सङ्ग पूर्णता पानी है
सरल नहीं थी पर्वत कन्या की शिवयात्रा..
१.
हमारे बीच का अंतर
देह की उपस्थिति से नहीं मिटता
हमारे बीच का सम्वाद
मौन तय नहीं करता, स्पर्श चुनता है शब्द
एक विरल अन्तर है,
और एक वृह्द आकाश;
बस एक हम हैं जो हैं हमारे बीच..
२.
तुम्हारी देह में मेरे लिये प्रेम को भरी जगहों के अलावा कोई जगह थी
जहाँ मैं चूम सकता था
ये जगह ज़रा खाली थी मेरे रह सकने की जगह सी
मैं रहा वहाँ तुम्हारी अपूर्ण इच्छाओं सा.. निर्वस्त्र..
तुम्हारे शरीर पर तुम्हारे घाव सजते थे..
मैं चूमता था, प्रेम उगता था..
तुम्हारी आत्मा की किसी एक जगह मैं बाँझ पड़ा हूँ चाँद!
मेरे प्रेम की तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं सा..
सो जाएंगे वो
जिन्हें अंधेरा आंख पर रखकर सोना होता है
चैन से..
जिन्हें सोने के लिए आंख मूंदने की ज़रूरत नहीं,
जिनके लिए नज़र मिलाना
नज़र चुरा लेना होता है..
और मैं जागता रहूंगा
उम्र का चौकीदार होकर,
देता रहूंगा पहरा समय की परिधि पर..
मैं मलूँगा सम्बन्धों की राख
मृत हो चुके युगों की पीठ पर,
मुरझाये प्रेम की बातें जब पपड़ाकर झड़ती हैं;
मैं एक हमउमर ढूंढूंगा
गर्म होकर ठण्डी हुई मिट्टी का..
मैं इंतज़ार करूँगा किसी एक रात
प्रलय की बारिश का,
और चाहूंगा कि इस सृष्टि,
बदल जाएं सभी पूर्व परिभाषाएं..
इस सभ्यता
मैं नहीं चाहूंगा
पशु से मानव हुए मानव के क्रम विकास का
मैं चाहूंगा मनुष्य से मनुष्य के मनुष्य होने को
या चाहूंगा बस उसका पशु ही रहना..
मुक्ति-बिम्ब
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शाम होते ही
घर की दीवारें
अपनी जगह बदलती हैं
और
मन की पीड़ा-छाया
जो अब तक आँखें मिचियाती धूप पर
लम्बवत पड़ रही थीं
स्थानान्तरित हो जाती हैं।
कानों में असंख्य करुण स्वर पड़ते हैं
उन सैकड़ों इच्छाओं के
जिन्हें धरती में चाँद खोदकर
गाड़ दिया गया
और दरख़्त खड़े कर दिए गए
जिनकी छाती पर।
चन्द्र-कामनाओं के प्रेत
दीवारों के छोर पर भटकते हैं,
सूखे पेड़ों में कैद हैं
ज़ंजीरों में बंधे उनके मोक्ष के बिम्ब..
परिचय
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अपने चेहरे से कई चेहरे उतार चुकने के बाद
भूल चुका हूँ अपना चेहरा
शीशे में खुद को देखते हुए बस देखना रह जाता है, परिचय गुम जाता है..
खुद को देखते हर बार चेहरा कोई और लगता है,
खुद को सुनते हुए हर बार आवाज़ भी लगती है अपरिचित.. नकली सी..
लोग मुझसे मिलते हैं तो मुझे मैं समझकर ही सम्बोधित करते हैं,
उनके ‘तुम’ में मैं ‘मैं’ नहीं ढूँढ पाता;
मुझे तो खैर मुझसे मिले अरसा हुआ..
सोचता हूँ खुद से कभी मिलना हुआ तो खुद को पहचानूँगा कैसे..
अप्रेम का प्रेम
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जब ईश्वर लिखना सम्भव न हो,
आप लिखते हैं प्रेम
और एक असम्भव आशा जाग उठती है
इसके सर्वव्यापी होने की..
अप्रेम से भरा व्यक्ति भी चीख पड़ता है- यूरेका.. यूरेका..
उसे लगता है कि
प्रेम का गूढ़ रहस्य ज़ाहिर हो गया है उस पर, मगर
जिस पल उसे ये लगता है,
उस पल वो हस्ताक्षर कर रहा होता है
सादे कागज़ पर, एक अबूझ पागलपन के दौर में..
– गौतम योगेन्द्र ‘शून्य’