सदमा – 2 : मेरा कोई सपना होता…!

दुखांत प्रेम कहानियों पर बनने वाली फिल्मों में सदमा को मैं श्रेष्ठ मानता हूं। ऐसी फिल्मों में अकसर नायक-नायिका की दुखद मृत्यु हो जाती है। वे मिलते हुए बिछड़ जाते हैं। लेकिन सदमा का विछोह अपार है। वहां देह की मृत्यु नहीं है, आत्मा के लोक का लुंठन है। एक भयावह अंधकार है। स्याह अंधेरा.. संभवत: ऐसा कि प्रेमी विक्षिप्त हो जाए।
नायिका को लेकर ट्रेन चली जाती है और नायक अपनी भग्न देह-आत्मा के साथ प्लेटफॉर्म पर गुलाटियां खाता रहता है। सामने नैराश्य की नीलगिरि पर्वतमाला फैली हुई है। रिमझिम बारिश में भीगता हुआ, लंगड़ाता हुआ वह उठता है और बेंच पर निढाल पड़ जाता है। पीछे से येसुदास की आवाज़ गाती है.. मेरा कोई सपना होता…!
प्रेम अकथ रह जाता है। वह प्रेम भी प्रेम के अर्थ में भिन्न है कि नायक रेशमी से बालसुलभ स्नेह करता है। यद्यपि वह जानता है कि रेशमी एक विस्मृति है तथापि उसने नियति बना लिया है। उसे तो जैसे आदत हो गई है। वह उसे लोरी गाकर सुलाता है.. उसके बाल बनाता है, उसके रूठ जाने पर वानर की भांति भंगिमाएं करता है। भीतर उसके अथाह प्रीति है, एक अव्यक्त प्रणयी मन ! जिसमें दूर-दूर तक देह की लालसा नहीं है पर एक प्रतीक्षा है कि किसी रोज़ रेशमी व्यक्त कर सकेगी।
मगर ऐसा नहीं होता। ट्रेन छूटने के अंतिम क्षणों में कितना कठोर और स्नेहशून्य, भावरहित है श्रीदेवी का चेहरा! और कितना कातर है कमल हासन का मुखानन! किस निर्दयता, निस्पृहता से वह कहती है.. कोई पागल लगता है! और फिर खाने का पैकेट उसकी ओर फेंकती है.. आह ! पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के श्रेष्ठ सिनेमेटोग्राफर बालू महेन्द्रा ने हिन्दी सिनेमा वालों के सामने हंसते हुए जैसे एक टुकड़ा फेंक दिया है कि देखो प्रेमकथा ऐसी भी बनाई जा सकती है!
आनंद फिल्म के आखिरी दृश्य को देखते हुए जिस भंवर में आदमी डूबता जाता है.. वैसा ही भंवर सदमा में है..बल्कि सदमा का भंवर तो विकराल है.. क्योंकि यहां प्रेम में स्त्री और पुरुष हैं।
प्रेमियों के मिलन विछोह की परिपाटी यहां टूट जाती है। ऐसा लगता है कि क्या देख आया.. जिसे न तो छोड़ते बनता है ना ही देखते। यहीं से श्रीदेवी का जन्म होता है। अगर श्रीदेवी सिर्फ यही फिल्म कर इस संसार से विदा हो जाती तब भी वे मेरी दृष्टि में देश की महानतम अभिनेत्रियों में शुमार होतीं।
– देवांशु झा
सदमा : अंग्रेज़ी वर्णमाला का नौवां वर्ण ‘I’ यानी ‘मैं’ का खो जाना